HI/BG 11.43: Difference between revisions

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==== श्लोक 43 ====
==== श्लोक 43 ====


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:पितासि लोकस्य चराचरस्य
 
:त्वमस्य पूज्यश्च गुरुर्गरीयान् ।
:न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्यो
:लोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव ॥४३॥
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भगवान् कृष्ण के भी सामान्य व्यक्ति की तरह इन्द्रियाँ तथा शरीर हैं, किन्तु उनके लिए अपनी इन्द्रियों, अपने शरीर, अपने मन तथा स्वयं में कोईअन्तर नहीं रहता । जो लोग मुर्ख हैं, वे कहते हैं कि कृष्ण अपने आत्मा, मन, हृदय तथा अन्य प्रत्येक वस्तु से भिन्न हैं । कृष्ण तो परम हैं, अतः उनकेकार्य तथा शक्तियाँ भी सर्वश्रेष्ठ हैं । यह भी कहा जाता है कि यद्यपिहमारे समान उनकी इन्द्रियाँ नहीं है , तो भी वे सारे ऐन्द्रिय कार्य करतेहैं । अतः उनकी इन्द्रियाँ न तो सीमित हैं, न ही अपूर्ण हैं । न तो कोईउनसे बढ़कर है, न उनके तुल्य कोई है । सभी लोग उनसे घट कर हैं ।
भगवान् कृष्ण के भी सामान्य व्यक्ति की तरह इन्द्रियाँ तथा शरीर हैं, किन्तु उनके लिए अपनी इन्द्रियों, अपने शरीर, अपने मन तथा स्वयं में कोईअन्तर नहीं रहता । जो लोग मुर्ख हैं, वे कहते हैं कि कृष्ण अपने आत्मा, मन, हृदय तथा अन्य प्रत्येक वस्तु से भिन्न हैं । कृष्ण तो परम हैं, अतः उनकेकार्य तथा शक्तियाँ भी सर्वश्रेष्ठ हैं । यह भी कहा जाता है कि यद्यपिहमारे समान उनकी इन्द्रियाँ नहीं है , तो भी वे सारे ऐन्द्रिय कार्य करतेहैं । अतः उनकी इन्द्रियाँ न तो सीमित हैं, न ही अपूर्ण हैं । न तो कोईउनसे बढ़कर है, न उनके तुल्य कोई है । सभी लोग उनसे घट कर हैं ।


परम पुरुष का ज्ञान, शक्ति तथा कर्म सभी कुछ दिव्य हैँ । भगवद्गीता में (४.९) कहा गया है –
परम पुरुष का ज्ञान, शक्ति तथा कर्म सभी कुछ दिव्य हैँ । भगवद्गीता में '''([[HI/BG 4.9|४.९]])''' कहा गया है –


जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः ।
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः ।

Latest revision as of 17:54, 17 September 2020

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 43

पितासि लोकस्य चराचरस्य
त्वमस्य पूज्यश्च गुरुर्गरीयान् ।
न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्यो
लोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव ॥४३॥

शब्दार्थ

पिता—पिता; असि—हो; लोकस्य—पूरे जगत के; चर—सचल; अचरस्य—तथा अचलों के; त्वम्—आप हैं; अस्य—इसके; पूज्य:—पूज्य; च—भी; गुरु:—गुरु; गरीयान्—यशस्वी, महिमामय; न—कभी नहीं; त्वत्-सम:—आपके तुल्य; अस्ति—है; अभ्यधिक:—बढ़ कर; कुत:—किस तरह सम्भव है; अन्य:—दूसरा; लोक-त्रये—तीनों लोकों में; अपि—भी; अप्रतिम-प्रभाव—हे अचिन्त्य शक्ति वाले।

अनुवाद

आप इस चर तथा अचर सम्पूर्ण दृश्यजगत के जनकहैं । आप परम पूज्य महान आध्यात्मिक गुरु हैं । न तो कोई आपके तुल्य है, नही कोई आपके समान हो सकता है । हे अतुल शक्ति वाले प्रभु! भला तीनों लोकोंमें आपसे बढ़कर कोई कैसे हो सकता है?

तात्पर्य

भगवान्कृष्ण उसी प्रकार पूज्य हैं, जिस प्रकार पुत्र द्वार पिता पूज्य होता है ।वे गुरु हैं क्योंकि सर्व प्रथम उन्हीं ने ब्रह्मा को वेदों का उपदेश दियाऔर इस समय अर्जुन को भगवद्गीता का उपदेश दे रहे हैं, अतः वे आदि गुरु हैंऔर इस समय किसी भी प्रामाणिक गुरु को कृष्ण से प्रारम्भ होने वालीगुरु-परम्परा का वंशज होना चाहिए । कृष्ण का प्रतिनिधि हुए बिना कोई न तोशिक्षक और न आध्यात्मिक विषयों का गुरु हो सकता है ।

भगवान् कोसभी प्रकार से नमस्कार किया जा रहा है । उनकी महानता अपरिमेय है । कोई भीभगवान् कृष्ण से बढ़कर नहीं, क्योंकि इस लोक में या वैकुण्ठ लोक में कृष्णके समान या उनसे बड़ा कोई नहीं है । सभी लोग उनसे निम्न हैं । कोई उनकों पारनहीं कर सकता । श्र्वेताश्र्वतर उपनिषद् में (६.८) कहा गया है कि –

न तस्य कार्यं करणं च विद्यते

न तत्समश्र्चाभ्यधिकश्र्च दृश्यते ।

भगवान् कृष्ण के भी सामान्य व्यक्ति की तरह इन्द्रियाँ तथा शरीर हैं, किन्तु उनके लिए अपनी इन्द्रियों, अपने शरीर, अपने मन तथा स्वयं में कोईअन्तर नहीं रहता । जो लोग मुर्ख हैं, वे कहते हैं कि कृष्ण अपने आत्मा, मन, हृदय तथा अन्य प्रत्येक वस्तु से भिन्न हैं । कृष्ण तो परम हैं, अतः उनकेकार्य तथा शक्तियाँ भी सर्वश्रेष्ठ हैं । यह भी कहा जाता है कि यद्यपिहमारे समान उनकी इन्द्रियाँ नहीं है , तो भी वे सारे ऐन्द्रिय कार्य करतेहैं । अतः उनकी इन्द्रियाँ न तो सीमित हैं, न ही अपूर्ण हैं । न तो कोईउनसे बढ़कर है, न उनके तुल्य कोई है । सभी लोग उनसे घट कर हैं ।

परम पुरुष का ज्ञान, शक्ति तथा कर्म सभी कुछ दिव्य हैँ । भगवद्गीता में (४.९) कहा गया है –

जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः ।

त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ।।

जो कोई कृष्ण के दिव्य शरीर, कर्म तथा पूर्णता को जान लेता है, वह इस शरीरको छोड़ने के बाद उनके धाम को जाता है और फिर इस दुखमय संसार में वापस नहींआता । अतः मनुष्य को जान लेना चाहिए कि कृष्ण के कार्य अन्यों से भिन्नहोते हैं । सर्वश्रेष्ठ मार्ग तो यह है कि कृष्ण के नियमों का पालन कियाजाय, इससे मनुष्य सिद्ध बनेगा । यह भी कहा गया है कि कोई ऐसा नहीं जो कृष्णका गुरु बन सके, सभी तो उनके दास हैं । चैतन्य चरितामृत (आदि ५.१४२) सेइसकी पुष्टि होती है – एकले ईश्र्वर कृष्ण, आर सब भृत्य – केवल कृष्णईश्र्वर हैं, शेष सभी उनके दास हैं । प्रत्येक व्यक्ति उनके आदेश का पालनकरता है । ऐसा कोई नहीं जो उनके आदेश का उल्लंघन कर सके । प्रत्येक व्यक्तिउनकी अध्यक्षता में होने के कारण उनके निर्देश के अनुसार कार्य करता है ।जैसा कि ब्रह्मसंहिता में कहा गया है कि वे समस्त कारणों के कारण हैं ।