HI/BG 4.23: Difference between revisions

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==== श्लोक 23 ====
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:गतसङ्गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः ।
 
:यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते ॥२३॥
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Latest revision as of 14:27, 1 August 2020

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 23

गतसङ्गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः ।
यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते ॥२३॥

शब्दार्थ

गत-सङगस्य—प्रकृति के गुणों के प्रति अनासक्त; मुक्तस्य—मुक्त पुरुष का; ज्ञान-अवस्थित—ब्रह्म में स्थित; चेतस:—जिसका ज्ञान; यज्ञाय—यज्ञ (कृष्ण) के लिए; आचरत:—करते हुए; कर्म—कर्म; समग्रम्—सम्पूर्ण; प्रविलीयते—पूर्णरूप से विलीन हो जाता है।.

अनुवाद

जो पुरुष प्रकृति के गुणों के प्रति अनासक्त है और जो दिव्य ज्ञान में पूर्णतया स्थित है, उसके सारे कर्म ब्रह्म में लीन हो जाते हैं |

तात्पर्य

पूर्णरूपेण कृष्णभावनाभावित होने पर मनुष्य समस्त द्वन्द्वों से मुक्त हो जाता है और इस तरह भौतिक गुणों के कल्मष से भी मुक्त हो जाता है | वह इसीलिए मुक्त हो जाता है क्योंकि वह कृष्ण के साथ अपने सम्बन्ध की स्वाभाविक स्थिति को जानता है, फलस्वरूप उसका चित्त कृष्णभावनामृत से विचलित नहीं होता | अतएव वह जो कुछ भी करता है, वह आदिविष्णु कृष्ण के लिए होता है | अतः उसका सारा कर्म यज्ञरूप होता है, क्योंकि यज्ञ का उद्देश्य परम पुरुष विष्णु अर्थात् कृष्ण को प्रसन्न करना है | ऐसे यज्ञमय कर्म का फल निश्चय ही ब्रह्म में विलीन हो जाता है और मनुष्य को कोई भौतिक फल नहीं भोगना पड़ता है |