HI/BG 7.13: Difference between revisions

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==== श्लोक 13 ====
==== श्लोक 13 ====


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:''” त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत् |''
:त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत्
:''मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम् || १३ ||”''
:मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम् ॥१३॥
 
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त्रिभि:—तीन; गुण-मयै:—गुणों से युक्त; भावै:—भावों के द्वारा; एभि:—इन; सर्वम्—सम्पूर्ण; इदम्—यह; जगत्—ब्रह्माण्ड; मोहितम्—मोहग्रस्त; न अभिजानाति—नहीं जानता; माम्—मुझको; एभ्य:—इनसे; परम्—परम; अव्ययम्—अव्यय, सनातन।.
त्रभि:—तीन; गुण-मयै:—गुणों से युक्त; भावै:—भावों के द्वारा; एभि:—इन; सर्वम्—सम्पूर्ण; इदम्—यह; जगत्—ब्रह्माण्ड; मोहितम्—मोहग्रस्त; न अभिजानाति—नहीं जानता; माम्—मुझको; एभ्य:—इनसे; परम्—परम; अव्ययम्—अव्यय, सनातन।
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तात्पर्य : सारा संसार प्रकृति के तीन गुणों से मोहित है | जो लोग इस प्रकार से तीन गुणों के द्वारा मोहित हैं, वे नहीं जान सकते कि परमेश्र्वर कृष्ण इस प्रकृति से परे हैं |
सारा संसार प्रकृति के तीन गुणों से मोहित है | जो लोग इस प्रकार से तीन गुणों के द्वारा मोहित हैं, वे नहीं जान सकते कि परमेश्र्वर कृष्ण इस प्रकृति से परे हैं |


प्रत्येक जीव को प्रकृति के वशीभूत होकर एक विशेष प्रकार का शरीर मिलता है और तदानुसार उसे एक विशेष मनोवैज्ञानिक (मानसिक) तथा शारीरिक कार्य करना होता है | प्रकृति के तीन गुणों के अन्तर्गत कार्य करने वाले मनुष्यों की चार श्रेणियाँ हैं | जो नितान्त सतोगुणी हैं वे ब्राह्मण, जो रजोगुणी हैं वे क्षत्रिय और जो रजोगुणी एवं तमोगुणी दोनों हैं, वे वैश्य कहलाते हैं तथा जो नितान्त तमोगुणी हैं वे शुद्र कहलाते हैं | जो इनसे भी नीचे हैं वे पशु हैं | फिर ये उपाधियाँ स्थायी नहीं हैं | मैं ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या कुछ भी हो सकता हूँ | जो भी हो यह जीवन नश्र्वर है | यद्यपि यह जीवन नश्र्वर है और हम नहीं जान पाते कि अगले जीवन में हम क्या होंगे, किन्तु माया के वश में रहकर हम अपने आपको देहात्मबुद्धि के द्वारा अमरीकी, भारतीय, रुसी या ब्राह्मण, हिन्दू, मुसलमान आदि कहकर सोचते हैं | और यदि हम प्रकृति के गुणों में बँध जाते हैं तो हम उस भगवान् को भूल जाते हैं जो इन गुणों के मूल में है | अतः भगवान् का कहना है कि सारे जीव प्रकृति के इन गुणों द्वारा मोहित होकर यह नहीं समझ पाते कि इस संसार की पृष्ठभूमि में भगवान् हैं |
प्रत्येक जीव को प्रकृति के वशीभूत होकर एक विशेष प्रकार का शरीर मिलता है और तदानुसार उसे एक विशेष मनोवैज्ञानिक (मानसिक) तथा शारीरिक कार्य करना होता है | प्रकृति के तीन गुणों के अन्तर्गत कार्य करने वाले मनुष्यों की चार श्रेणियाँ हैं | जो नितान्त सतोगुणी हैं वे ब्राह्मण, जो रजोगुणी हैं वे क्षत्रिय और जो रजोगुणी एवं तमोगुणी दोनों हैं, वे वैश्य कहलाते हैं तथा जो नितान्त तमोगुणी हैं वे शुद्र कहलाते हैं | जो इनसे भी नीचे हैं वे पशु हैं | फिर ये उपाधियाँ स्थायी नहीं हैं | मैं ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या कुछ भी हो सकता हूँ | जो भी हो यह जीवन नश्र्वर है | यद्यपि यह जीवन नश्र्वर है और हम नहीं जान पाते कि अगले जीवन में हम क्या होंगे, किन्तु माया के वश में रहकर हम अपने आपको देहात्मबुद्धि के द्वारा अमरीकी, भारतीय, रुसी या ब्राह्मण, हिन्दू, मुसलमान आदि कहकर सोचते हैं | और यदि हम प्रकृति के गुणों में बँध जाते हैं तो हम उस भगवान् को भूल जाते हैं जो इन गुणों के मूल में है | अतः भगवान् का कहना है कि सारे जीव प्रकृति के इन गुणों द्वारा मोहित होकर यह नहीं समझ पाते कि इस संसार की पृष्ठभूमि में भगवान् हैं |

Latest revision as of 16:07, 4 August 2020

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 13

त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत् ।
मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम् ॥१३॥

शब्दार्थ

त्रभि:—तीन; गुण-मयै:—गुणों से युक्त; भावै:—भावों के द्वारा; एभि:—इन; सर्वम्—सम्पूर्ण; इदम्—यह; जगत्—ब्रह्माण्ड; मोहितम्—मोहग्रस्त; न अभिजानाति—नहीं जानता; माम्—मुझको; एभ्य:—इनसे; परम्—परम; अव्ययम्—अव्यय, सनातन।

अनुवाद

तीन गुणों (सतो, रजो तथा तमो) के द्वारा मोहग्रस्त यह सारा संसार मुझ गुणातीत तथा अविनाशी को नहीं जानता |

तात्पर्य

सारा संसार प्रकृति के तीन गुणों से मोहित है | जो लोग इस प्रकार से तीन गुणों के द्वारा मोहित हैं, वे नहीं जान सकते कि परमेश्र्वर कृष्ण इस प्रकृति से परे हैं |

प्रत्येक जीव को प्रकृति के वशीभूत होकर एक विशेष प्रकार का शरीर मिलता है और तदानुसार उसे एक विशेष मनोवैज्ञानिक (मानसिक) तथा शारीरिक कार्य करना होता है | प्रकृति के तीन गुणों के अन्तर्गत कार्य करने वाले मनुष्यों की चार श्रेणियाँ हैं | जो नितान्त सतोगुणी हैं वे ब्राह्मण, जो रजोगुणी हैं वे क्षत्रिय और जो रजोगुणी एवं तमोगुणी दोनों हैं, वे वैश्य कहलाते हैं तथा जो नितान्त तमोगुणी हैं वे शुद्र कहलाते हैं | जो इनसे भी नीचे हैं वे पशु हैं | फिर ये उपाधियाँ स्थायी नहीं हैं | मैं ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या कुछ भी हो सकता हूँ | जो भी हो यह जीवन नश्र्वर है | यद्यपि यह जीवन नश्र्वर है और हम नहीं जान पाते कि अगले जीवन में हम क्या होंगे, किन्तु माया के वश में रहकर हम अपने आपको देहात्मबुद्धि के द्वारा अमरीकी, भारतीय, रुसी या ब्राह्मण, हिन्दू, मुसलमान आदि कहकर सोचते हैं | और यदि हम प्रकृति के गुणों में बँध जाते हैं तो हम उस भगवान् को भूल जाते हैं जो इन गुणों के मूल में है | अतः भगवान् का कहना है कि सारे जीव प्रकृति के इन गुणों द्वारा मोहित होकर यह नहीं समझ पाते कि इस संसार की पृष्ठभूमि में भगवान् हैं |

जीव कई प्रकार के हैं – यथा मनुष्य, देवता, पशु आदि; और इनमें से हर एक प्रकृति के वश में है और ये सभी दिव्यपुरुष भगवान् को भूल चुके हैं | जो रजोगुणी तथा तमोगुणी हैं, यहाँ तक कि जो सतोगुणी भी हैं वे भी परमसत्य के निर्विशेष ब्रह्म स्वरूप से आगे नहीं बढ़ पाते | वे सब भगवान् के साक्षात् स्वरूप के समक्ष संभ्रमित हो जाते हैं, जिसमें सारा सौंदर्य, ऐश्र्वर्य, ज्ञान, बल, यश तथा त्याग भरा है | जब सतोगुणी तक इस स्वरूप को नहीं समझ पाते तो उनसे क्या आशा की जाये जो रजोगुणी या तमोगुणी हैं? कृष्णभावनामृत प्रकृति के तीनों गुणों से परे है और जो लोग निस्सन्देह कृष्णभावनामृत में स्थित हैं, वे ही वास्तव में मुक्त हैं |