HI/BG 9.24: Difference between revisions

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==== श्लोक 24 ====
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:अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च ।
 
:न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते ॥२४॥
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Latest revision as of 15:50, 6 August 2020

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 24

अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च ।
न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते ॥२४॥

शब्दार्थ

अहम्—मैं; हि—निश्चित रूप से; सर्व—समस्त; यज्ञानाम्—यज्ञों का; भोक्ता—भोग करने वाला; च—तथा; प्रभु:—स्वामी; एव—भी; च—तथा; न—नहीं; तु—लेकिन; माम्—मुझको; अभिजानन्ति—जानते हैं; तत्त्वेन—वास्तव में; अत:—अतएव; च्यवन्ति—नीचे गिरते हैं; ते—वे।

अनुवाद

मैं ही समस्त यज्ञों का एकमात्र भोक्ता तथा स्वामी हूँ | अतः जो लोग मेरे वास्तविक दिव्य स्वभाव को नहीं पहचान पाते, वे नीचे गिर जाते हैं |

तात्पर्य

यहाँ यह स्पष्ट कहा गया है कि वैदिक साहित्य में अनेक प्रकार के यज्ञ-अनुष्ठानों का आदेश है, किन्तु वस्तुतः वे सब भगवान् को ही प्रसन्न करने के निमित्त हैं | यज्ञ का अर्थ है विष्णु | भगवद्गीता के तृतीय अध्याय में यह स्पष्ट कथन है कि मनुष्य को चाहिए कि यज्ञ या विष्णु को प्रसन्न करने के लिए ही कर्म करे | मानवीय सभ्यता का समग्ररूप वर्णाश्रम धर्म है और यह विशेष रूप से विष्णु को प्रसन्न करने के लिए है | इसीलिए इस श्लोक में कृष्ण कहते हैं, “मैं समस्त यज्ञों का भोक्ता हूँ, क्योंकि मैं परम प्रभु हूँ |” किन्तु अल्पज्ञ इस तथ्य से अवगत न होने के कारण क्षणिक लाभ के लिए देवताओं को पूजते हैं | अतः वे इस संसार में आ गिरते हैं और उन्हें जीवन का लक्ष्य प्राप्त नहीं हो पाता | यदि किसी को अपनी भौतिक इच्छा पूर्ति करनी हो तो अच्छा यही होगा कि वह इसके लिए परमेश्र्वर से प्रार्थना करे (यद्यपि यह शुद्धभक्ति नहीं है) और इस प्रकार उसे वांछित फल प्राप्त हो सकेगा |