HI/Prabhupada 0615 - प्रेम और उत्साह के साथ कृष्ण के लिए काम करते हो, यही तुम्हारा कृष्ण भावनाभावित जीवन है: Difference between revisions

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Lecture on BG 1.30 -- London, July 23, 1973

दो प्रकार के मायावादी होते हैं: निर्विषेशवादी अौर शून्यवादी । वे सभी मायावादी हैं । तो उनका तत्वज्ञान तब तक अच्छा है, क्योंकि एक मूर्ख आदमी इस से अधिक नहीं समझ सकता है । एक मूर्ख आदमी, अगर उसे सूचित किया जाता है कि आध्यात्मिक दुनिया में बेहतर जीवन है, भगवान कृष्ण का दास बनने के लिए, उन्हें लगता है कि, "मैं इस भौतिक दुनिया में दास बना । मैंने इतने कष्ट झेले हैं । एक बार फिर दास कृष्ण का ?" "ओह..." वे घबरा जाते हैं, "ओह, नहीं, नहीं । यह अच्छा नहीं है । यह अच्छा नहीं है ।"

जैसे ही वे सेवा के बारे में सुनते हैं, वे इस सेवा के बारे में सोचते हैं, यह बकवास सेवा । वे सोच नहीं सकते हैं कि सेवा है, लेकिन केवल आनंद ही है । कोई अौर अधिक उत्सुक है कृष्ण की सेवा के लिए । यही आध्यात्मिक दुनिया है । वे यह समझ नहीं सकते हैैं । तो ये निर्विषेशवादी, मायावादी, वे ऐसा सोचते हैं ।

जैसे एक रोगग्रस्त अादमी बिस्तर पर पड़ा है, और अगर उसे सूचित किया जाता है कि "जब तुम ठीक हो जाअोगे, तो तुम चलने में सक्षम हो जाअोगे, अच्छी तरह से खाने में सक्षम हो जाअोगे," वह सोचता है कि, "फिर खाना ? फिर चलना ?" क्योंकि कड़वी दवा खाने का आदी है वह और सागूदाना, बहुत स्वादिष्ट नहीं है, और ऐसी बहुत सी बातें, मल और मूत्र, बिस्तर पर के कार्य । इसलिए जैसे ही वे कहते हैं कि, "ठीक हो जाने के बाद भी खाना है और मल और मूत्र त्यागना है, लेकिन यह बहुत स्वादिष्ट है ।" वह नहीं समझ सकता । वह कहता है, "यह कुछ इस तरह से है ।"

तो मायावादी निर्विषेशवादी, वे समझ नहीं सकते हैं कि कृष्ण की सेवा बस खुशी और आनंद से भरी है । वे नहीं समझ सकते । इसलिए वे मायावादी बन जाते हैं: "नहीं निरपेक्ष सत्य व्यक्ति नहीं हो सकता है ।" यही बौद्ध धर्म के तत्वज्ञान का एक और पक्ष है । अवैयक्तिक का मतलब है शून्य । वह भी शून्य है । तो बौद्ध तत्वज्ञान, वे भी अंतिम लक्ष्य शून्य बनाते हैं, अौर ये मायावादी, वे भी अंतिम लक्ष्य शून्य बनाते हैं... न ते विदु: स्वार्थ गतिम हि विष्णुम (श्रीमद भागवतम ७.५.३१) । वे नहीं समझ सकते हैं कि जीवन है, आनंदमय जीवन, श्री कृष्ण की सेवा करके ।

इसलिए, यहां अर्जुन एक साधारण आदमी की तरह पात्र निभा रहे हैं । तो वे श्री कृष्ण से कहते हैं। "अाप चाहते हैं कि मैं लडूँ, सुखी होने के लिए, राज्य पाने के लिए, लेकिन अपने ही स्वजनों की हत्या करके ? ओह, निमित्तानि विपरीतानि । अाप मुझे गुमराह कर रहे हैं । निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि । "मैं अपने खुद के स्वजनों की हत्या करके खुश नहीं हो सकता हूँ । यह संभव नहीं है । अाप मुझे कैसे उत्तेजित कर रहे हैं ?" तो उसने कहा, निमित्तानि पश्यामि । "नहीं, नहीं ।" ना च शक्नोमि अवस्थातुम: "मैं यहाँ खड़ा नहीं हो सकता । मुझे वापस जाने दो । मेरा रथ वापस ले लो । मैं यहाँ नहीं रह सकता ।" न च शक्नोमि अवस्थातुम भ्रमतीव च मे मन: (भ.गी. १.३०) । "मैं भ्रमित होता जा रहा हूँ । अब मैं हैरान हूँ ।"

तो यह स्थिति है, भौतिक दुनिया की । हम हमेशा समस्या में हैं, पहेली में, और जब भौतिकवादी व्यक्ति को कुछ बेहतर प्रस्ताव दिया जाता है, की "तुम कृष्ण भावनामृत को अपनाअो, तुम खुश रहोगे," वे देखते हैं निमित्तानि विपरीतानि, बस विपरीत । "यह कृष्ण भावनामृत क्या है, मैं खुश रहूँगा ? मेरा परिवार मुसीबत में है या मेरी इतनी सारी समस्याऍ हैं । यह कृष्ण भावनामृत मेरी मदद करेगा क्या?" निमित्तानि च विपरीतानि । यह जीवन की भौतिक हालत है । इसलिए वो समझने के लिए थोड़े समय की आवश्यकता है । यही भगवद गीता है ।

वही अर्जुन, उसे अब लग रहा है, निमित्तानि च विपरीतानि । जब वह भगवद गीता समझ जाएगा, वह कहता है, "हाँ, कृष्ण, आप जो कह रहे हैं, यह सही है । यह सही है ।" क्योंकि अर्जुन को निर्देश को देने के बाद, कृष्ण उससे पूछेंगे "अब तुम क्या करना चाहते हो ?" क्योंकि कृष्ण मजबूर नहीं करते हैं । कृष्ण कहते हैं कि "तुम मुझे आत्मसमर्पण करो ।" वे मजबूर नहीं करते हैं, कि "तुम्हे आत्मसमर्पण करना ही होगा । मैं भगवान हूँ । तुम मेरे अभिन्न अंग हो ।" नहीं, वे ये कभी नहीं कहते हैं । क्योंकि उन्होंने तुम्हे थोड़ी स्वतंत्रता दी है, वे उसे नहीं छूऍगे । अन्यथा एक पत्थर और एक जीव के बीच अंतर क्या है ?

एक जीव को स्वतंत्रता होनी ही चाहिए हालांकि यह बहुत कम है । उसको कृष्ण नहीं छूते हैं । वे कभी नहीं छूते हैं । तुम्हे स्वीकार करना होगा, "हां, कृष्ण, मैं आपको आत्मसमर्पण करता हूँ । हां । यह मेरे लाभ के लिए है ।" यह कृष्ण भावनामृत है । तुम्हे स्वेच्छा से सहमत होना होगा, मामूली नहीं, यांत्रिक तरीके से नहीं । "आध्यात्मिक गुरु यह कहते हैं । ठीक है मुझे यह करने दो ।" नहीं । तुम्हे बहुत अच्छी तरह से समझना होगा ।

तेशाम् सतत-युक्तानाम भजताम प्रीति-पूर्वकम (भ.गी. १०.१०) । प्रीति, प्रेम से । जब तुम काम करते हो, जब तुम प्रेम और उत्साह के साथ कृष्ण के लिए काम करते हो, यही तुम्हारा कृष्ण भावना भावित जीवन है । अगर तुम सोचते हो कि, "यह मामूली है, यह परेशानी है, लेकिन मैं क्या कर सकता हूँ ? इन लोगों ने मुझे करने को कहा है । मुझे करना होगा ।" यह कृष्ण भावनामृत नहीं है । तुम्हे स्वेच्छा से करना होगा और बहुत खुशी के साथ । फिर तुम्हें पता चलेगा । उत्साहान निश्वयाद धैर्यात तत-तत-कर्म-प्रवर्तनात, सतो वृत्ते: साधु-संगे षड्भिर भक्ति: प्रसिध्यति ।

तुम हमारे उपदेशमृत (३) में पाअोगे । हमेशा तुम्हे उत्साही होना चाहिए । धर्यात, धैर्य के साथ । तत-तत-कर्म-प्रवर्तनात । निश्वयात, निश्चयात का मतलब है विश्वास के साथ । "जब मैं कृष्ण की सेवा में लगता हूँ, कृष्ण की गतिविधियों में, कृष्ण निश्चित रूप से वापस घर ले जाऍगे, परम धाम..." निश्चयात । और कृष्ण कहते हैं, मन मना भव मद भक्तो मद्याजी माम नमस्कुरु (भ.गी. १८.६५) | "मैं तुम्हे वापिस जाऊँगा |" ये कहा गया है | कृष्ण जूठे नहीं है तो इसलिए हमें उत्साह से कार्य करना होगा | बस... विपरीतानि नहीं ।

यह अंत में अर्जुन द्वारा स्वीकार किया जाएगा । कृष्ण उनसे पूछेंगे, " मेरे प्रिय अर्जुन, अब तुम्हारा फैसला क्या है ?" अर्जुन कहेंगे "हाँ ।" त्वत प्रसादात केशव नष्ट मोह: "अब मेरे सभी भ्रम नष्ट हो गए हैं ।" बस ।

बहुत बहुत धन्यवाद । हरे कृष्ण ।