HI/690318 - हिमावती को लिखित पत्र, हवाई: Difference between revisions

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His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


18 मार्च, 1969


मेरी प्रिय हिमावती,

कृपया मेरे आशीर्वाद स्वीकार करो। मैं विग्रहों की पोशाक के साथ-साथ, 21 फरवरी 1969 के तुम्हारे पत्र के लिए तुम्हारा बहुत धन्यवाद करता हूँ। बहुत जल्दी-जल्दी जगह बदलने के कारण, यह मुझतक देरी से पंहुची है। विग्रहों की उपासना के संदर्भ में तुम्हारा कथन बहुत ही उत्कृष्ट है। कृपया यही प्रक्रिया जारी रखो और कृष्ण तुम पर पूरी कृपा करेंगे। यदि कोई विग्रहों की सेवा में पूर्णता प्राप्त कर लेता है, तो उसे अर्चना सिद्धि कहते हैं। अर्चना सिद्धि का अर्थ है कि, केवल विग्रहों की सेवा करने से, इस जीवन के तुरन्त बाद ही, व्यक्ति भगवद्धाम लौट जाता है। नारद पंचरात्र में यह अर्चना सिद्धि की प्रक्रिया विशेषकर गृहस्थों के लिए दी गई है। गृहस्थ आत्मसंयम के कठोर कार्यक्रमों का निर्वाह नहीं कर सकते। इसलिए प्रत्येक गृहस्थ के लिए, अर्चना सिद्धि का मार्ग विशेष रूप से सुझाया गया है। वैदिक प्रणाली के अनुसार, सभी ग्रहस्थों को घर में विग्रह रखने और सेवा प्रक्रिया का कठोरता से पालन करने के निर्देश दिए गए हैं। इससे घर, शरीर और मन शुद्ध हो जाते हैं और व्यक्ति आध्यात्मिक जीवन की शुद्ध अवस्था बहुत शीघ्रता से प्राप्त कर लेता है। मन्दिर भी विशेषकर ग्रहस्थों के लिए है। भारत में प्रत्येक नगर, ग्राम, मोहल्ले में, आसपास के ग्रहस्थों की सुविधा के लिए, विष्णु मन्दिर हैं। तो मैं बहुत प्रसन्न हूँ कि तुम आदर्श ग्रहस्थ हो। और तुम पति पत्नी साथ मिलजुल कर बहुत अच्छे से कार्य कर रहे हो। कृपया ऐसे ही चलते रहो और कृष्ण तुम्हें क्रमशः सारी सुविधा प्रदान करेंगे।

कृपया वेदान्त सूत्र की टेपों के बारे में हंसदूत से कहना की ट्रांस्कृप्शन की प्रतियां मुझे भेजे ताकि मैं एक और टेप तैयार कर पाऊं। यदि मैं प्रति पढ़ू तो मुझे और लिखने का उत्साह मिलता है। मैं एक जर्मन सज्जन के पत्र की एक प्रति मैं संलग्न भेज रहा हूँ। मैं इसे पढ़ नहीं पाया। तो तुम मुझे इस पत्र का अंग्रेज़ी अनुवाद भेज देना। और यदि संभव हो तो तुम उसे लिख सकती हो कि यह पत्र स्वामीजी महाराज को बहुत देरी से प्राप्त हुआ है, तो तुम इस पत्र की प्राप्ति तुरन्त स्वीकार करती हो। इसी बीच, अनुवाद के प्राप्त होने पर मैं उत्तर दूंगा।

आशा करता हूँ कि तुम अच्छे से हो,

सर्वदा तुम्हारा शुभाकांक्षी,

ए. सी. भक्तिवेदान्त स्वामी