HI/700307 - त्रिविक्रम को लिखित पत्र, लॉस एंजिलस: Difference between revisions
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त्रिदंडी गोस्वामी
ए.सी. भक्तिवेदांत स्वामी
संस्थापक-आचार्य:
अंतर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ
1975 सो ला सिएनेगा बुलेवर्ड
लॉस एंजिल्स, कैलिफोर्निया 90034
7 मार्च, 1970
मेरे प्रिय त्रिविक्रम,
कृपया मेरे आशीर्वाद स्वीकार करो। मुझे तुम्हारा 2 मार्च, 1970 का पत्र प्राप्त हुआ है। मैं सोचता हूँ कि, चूंकि अब हिमावती वहां है, वह विग्रहों की एक प्रथम श्रेणी की सेविका रहेगी और तुम्हें निवृत्त किया जा सकता है। तो यदि वहां तुम्हारी कोई अन्य महत्तवपूर्ण आवश्यकता नहीं है, तो तुम्हारे अमरीका लौट आने से मुझे कोई आपत्ति नहीं है। तो तुम इस संदर्भ में कृष्णदास व हंसदूत से परामर्श कर सकते हो और फिर उनकी सहमति से वापस लौट सकते हो। परन्तु यदि वहां तुम्हारी उपस्थिति की कोई महत्तवपूर्ण आवश्यकता है तो तुम कुछ समय और रुक कर लौट सकते हो।
मैं जानता हूँ कि, जैसे तुमने लंदन में इच्छा जताई थी, तुम अमरीका लौट आने के लिए अत्यन्त उत्सुक हो। तो तुम अपनी सुविधानुसार जितनी हो सके, जल्दी कर सकते हो।
मुझे नहीं लगता कि हंसदूत तुमपर विवाह करने के लिए दबाव डाल रहा है। विवाह एक छूट है, एक ऐसे व्यक्ति के लिए जो अपनी यौन इच्छाओं पर नियंत्रण न कर सकता हो। अवश्य ही यह इस देश में युवकों के लिए यह एक कठिन कार्य है, चूंकि युवतियों के साथ मेलजोल की उन्हें आज़ादी है। ऐसी परिस्थिति में मेरा सभी के लिए सार्वजनिक निर्देश यह है, कि हर कोई बिना नकली आडंबर के विवाह कर सकता है। परन्तु यदि कोई ब्रह्मचारी बने रहने सक्षम है, तो उस पर विवाह करने का कोई दबाव नहीं होना चाहिए।
लेकिन लगभग 50 वर्ष की परिपक्व आयु में, प्रत्येक को पत्नी से विलग हो जाना चाहिए। विवाहित जीवन का यह अर्थ नहीं है कि पूरे जीवन भर पत्नी के साथ रहा जाए। जीवन की एक अवस्था मे, लगभग 20 से 25 वर्ष की आयु के मध्य में, कोई धर्मपत्नी ग्रहण कर सकता है। फिर उसके साथ अधिकतम 50 वर्ष की आयु तक रह सकता है और इसके बाद कोई यौन संबंध नहीं होना चाहिए-इस बात का पूरी सख़्ती से पालन करना ही चाहिए। और फिर लगभग 65-70 वर्ष की परिपक्व प्रौढ़ अवस्था में, यदि पोषाक सहित नहीं तो गतिविधियों द्वारा संपूर्ण रूप से, सन्न्यास ग्रहण करना चाहिए।
हमारे छात्रों का बिना किसी निजी स्वार्थ के कृष्णभावनामृत में निरंतर सेवा करने का प्रशिक्षण किया जा रहा है, फिर चाहे वे ब्रह्मचारी हैं अथवा ग्रहस्थ। यही परिपूर्ण सन्न्यास आश्रम है। तो, यदि सभी इस प्रकार से प्रशिक्षित हों, तो हम सब प्रत्येक अवस्था में सन्न्यासी ही हैं। भगवद्गीता में समझाया गया है कि जो व्यक्ति कर्म के फल की आकांक्षा रखने के बजाए, मात्र कृष्ण के प्रति कर्त्तव्य के रूप में उसे करता है, वही एक वास्तविक सन्न्यासी व योगी है।
तो भले ही हम जीवन का कोई भी आश्रम ग्रहण करें, फल के प्रति आकर्षित हुए बिना, मात्र कर्त्तव्य के तौर पर कृष्ण के लिए कार्य करने के इस सिद्धांत का हमें अनुसरण करना चाहिए।
आशा करता हूँ कि यह तुम्हें अच्छे स्वास्थ्य में प्राप्त हो।
सर्वदा तुम्हारा शुभाकांक्षी,
(हस्ताक्षरित)
ए. सी. भक्तिवेदान्त स्वामी
एसीबीएस:डी बी
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