HI/730129 - शुकदेव को लिखित पत्र, कलकत्ता: Difference between revisions

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Letter to Sukadeva das


त्रिदंडी गोस्वामी

ए.सी. भक्तिवेदांत स्वामी

संस्थापक-आचार्य:
अंतर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ

केंद्र:3 अल्बर्ट रोड
कलकत्ता -17

29 जनवरी, 1973

मेरे प्रिय शुकदेव दास,

मुझे तुम्हारा दिनांक 1/8/73 का पत्र मिला है और मुझे उसे पढ़कर बहुत संतोष हुआ। तुम्हारी सद्भावनाओं के लिए तुम्हारा धन्यवाद। पहले गुरु की सेवा करने का भाव बिलकुल उपयुक्त है, क्योंकि गुरु कृपा से ही कृष्ण की कृपा प्राप्त की जा सकती है। जैसे हम प्रातः गान करते हैं – यस्य प्रसादाद भग्वद् प्रसादो, यस्याप्रसादाद न गतिः कुतोपि, ठीक इसी प्रकार से शिष्य भगवान को जानने में अधिकाधिक सफलता प्राप्त कर पाता है। यदि तुम पूरी श्रद्धा से, मेरे द्वारा दी गई आज्ञाओं का पालन करते हो तो तुम देखोगे कि तुम्हारी निष्ठा के कारण, कृष्ण कितने सारे लोगों को भक्त बनने के लिए भेजेंगे। क्योंकि तुम मेरे द्वारा नियुक्त प्रमुख हो, तो तुम्हें ध्यान रखना चाहिए कि बाकी सब भक्तगण सारे नियमों का सख्ती से पालन करते हैं, जैसे 16 माला जप, मेरी पुस्तकों का नियमानुसार पाठ, मंगला आरती के लिए प्रातः उठना आदि। ये सब नियम हमें कृष्ण भावनामृत में उन्नति के लिए शुद्धि प्रदान करेंगे।

पैट्रिक एवं जेन की दीक्षा के लिए जो तुमने आग्रह किया है, वह मुझे स्वीकार है। जहां तक नन्हे शिशु का प्रश्न है, उसे बड़ा होने तक प्रतीक्षा करने दो। तुम जप की हुई मालाऐं कीर्तनानन्द महाराज से प्राप्त कर सकते हो और यज्ञ का आयोजन कर सकते हो। ओजसिर दास ब्रह्मचारी, स्मरानन्द दास अदिकारी और उसकी पत्नि संसारमोचना देवी दासी की ब्राह्मण दीक्षा भी मुझे स्वीकार है। तुम्हें ब्राह्मण सूत्र संलग्न प्राप्त होंगे। तो यज्ञ आयोजित करो और जिनकी ब्राह्मण दीक्षा है उन्हें अंगुलियों के विभाजन पर गिनती करनी सिखा दो। गायत्री मंत्र की टेप उनके दाहिने कान में सुनाकर, मेरे उच्चारण के पीछे पीछे उनसे पत्येक शब्द का उच्चारण करवाओ। उसके बाद जनेऊ उनके गले में पहनाना है। युवतियां जनेऊ धारण नहीं किया करतीं, लेकिन गायत्री उच्चारण को दोहरा सकती हैं। प्रत्येक को व्यक्तिगत निर्देश देकर उसके लिए पुनः टेप चलाया जाए। यज्ञ आहुति के पश्चात गायत्री देने का आयोजन होना चाहिए और इसके लिए एक एक कर भक्त तुम्हारे पास आएं और जनेऊ ग्रहण करें।

हाँ, यह सत्य है कि गुरू अपने चित्र में विद्यमान हैं। लेकिन उससे अधिक महत्तवपूर्ण रूप में, वे अपनी शिक्षाओं में वास करते हैं। मुझे लगता है कि यह पहले भी एक पत्र में समझाया गया है जो पत्र अब प्रचलित हो चुका है। यदि तुम्हारे और भी प्रश्न हैं तो उनके उत्तर अपने जी.बी.सी करणधार से प्राप्त करने का प्रयास करो। क्योंकि मैं अब अपना सारा समय श्रीमद् भागवतम् जैसी पुस्तकों के अपने अनुवाद में लगाना चाहता हूँ, ताकि मैं उन्हें तुमको दे सकूं।

इस प्रकार मेरा हाथ बंटाने के लिए धन्यवाद। आशा करता हूँ कि यह तुम्हें अच्छे स्वास्थ्य में प्राप्त हो।

सर्वदा तुम्हारा शुभाकांक्षी

(हस्ताक्षरित)

ए.सी.भक्तिवेदान्त स्वामी

एसीबीएस/बीएमडीजी

सुकदेव दास अधिकारी, सिएटल इस्कॉन