HI/680409 - सत्स्वरूप को लिखित पत्र, सैंन फ्रांसिस्को: Difference between revisions

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Letter to Satsvarupa


त्रिदंडी गोस्वामी

ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी
आचार्य:अंतर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ


शिविर:इस्कॉन राधा कृष्ण मंदिर
518 फ्रेड्रिक स्ट्रीट
सैन फ्रांसिस्को,कैल 94117

9 अप्रैल, 1968

मेरे प्रिय सत्स्वरूप,

कृपया मेरे आशीर्वाद स्वीकार करो। तुम्हारे दिनांक 4/6/68 के पत्र को मैंने पढ़ा है और उसके लिए मैं तुम्हारा बहुत धन्यवाद करता हूँ। जहां तक तुम्हें काम दिए जाने की बात है, तुम्हें परेशान होने की कोई आवश्यकता नहीं है। तुम पहले से ही श्रीमद् भागवतम् के लिए सहायता कर रहे हो और यह तुम स्थायी तौर पर करते रहो। निस्संदेह ही तुम पहले से ही श्रीमद् भागवतम् के लिए कार्यकर्ता एवं संपादक हो।

अवश्य ही हम नीग्रो लोगों के बारे में ये बातें सार्वजनिक रूप से नहीं कह सकते। हमारे लिए काले व गोरे अथवा देवता व दानव के बीच कोई भेदभाव नहीं है। लेकिन साथ ही, जब तक देवता व दानव मौजूद हैं तो हमें उपयुक्त रूप से पेश आना होगा। जैसे कि चैतन्य महाप्रभू। उनकी ओर से बाघ व मनुष्य के बीच कोई भेदभाव नहीं था। वे इतने शक्तिशाली थे कि एक बाघ को भी नृत्य करवा सकते थे।पर जहां तक हमारी बात है, तो हमें उनकी नकल करके किसी बाघ के समक्ष जाकर उससे नृत्य करवाने का प्रयास नहीं करना चाहिए! लेकिन तब भी, एक बाघ भी एक मनुष्य के जैसी ही वरीयता प्राप्त है। तो तुम समझ सकते हो कि ये बाते जनसामान्य के लिए नहीं हैं, चूंकि उनमें समझने की शक्ति नहीं है। वास्तव में हमारा किसी के साथ वैमनस्य नहीं है। किन्तु यदि कोई आसुरी या नास्तिक वृत्ति का हो, तो हमें उसकी संगति से बचना चाहिए। एक फचारक का काम है भगवान से प्रेम करना, भक्तों के साथ मैत्री करना, निर्दोषों को प्रबोधित करना और असुरों से दूर रहना। हमें यह इस सिद्धांत का अनुसरण करना है। लेकिन आध्यात्मिक जीवन की उन्नत अवस्था में ऐसा कोई भेदभाव नहीं रह जाता। सर्वश्रेष्ठ भक्त सबकुछ कृष्ण में और कृष्ण को सब में देखता है। सामान्यतः एक प्रचाकर के तौर पर हम मध्यम भक्त हैं। तो हमें कनिष्ठ भक्त की स्थिति में नहीं बने रहना चाहिए। कनिष्ठ को पता नहीं होता कि प्रचार कैसे किया जाता है। वह मात्र मन्दिर जाता है और प्रेमपूर्वक सबकुछ विग्रह को अर्पण कर देता है। इसके अतिरिक्त उसे और कुछ पता नहीं होता। तो हमारे संघ के भक्तों को कनिष्ठ की स्थिति में नहीं बने रहना चाहिए। और न ही उन्हें उत्तम भक्तों की नकल करनी चाहिए। सबसे अच्छा यह है कि वे मध्यम स्थिति में रहें, अर्थात भगवान से प्रेम, भक्तों सें मैत्री, अनजानों को ज्ञान प्रदान और असुरों से बचकर रहना। कर्मानुसार शारीरिक विविधताएं तो होती हैं, किन्तु एक भक्त उन्हें उपरोक्त श्रेणियों में बांट लेता है। तो हमें इनको ऐसे गुटों में छांटना है और प्रत्येक गुट के साथ भिन्न प्रकार का बर्ताव करना है। यह सत्य है कि हमें भौतिक शरीर के अंतरों से आसक्ति नहीं होनी चाहिए। लेकिन व्यावहारिक रूप से, व्यावहारिक जीवन में हमारा बर्ताव उपरोक्त प्रकार से होना चाहिए।

जहां तक संस्कृत लिप्यंतरण की बात है, तो जो कुछ पर्रद्युम्न कर रहा है, वहीं हमारा मानक होगा। शब्द-विन्यास भी मानक स्तर का होना चाहिए और उसके कार्य पर ही आधारित। जहां तक “क्षत्रीय” शब्द है, तो उसका ठीक शब्द-विन्यास यही है। ये सभी त्रुटियां इसीलिए हो रही हैं कि मेरे छात्र संस्कृत से अनभिज्ञ हैं। इसी वजह से मैंने प्रद्युम्न से अनुरोध किया कि बहुत गंभीरता से संस्कृत सीखे। उसके पास योग्यता है। मैं आशा करता हूँ कि वह बहुत सफल रहे।

हां, हममें से प्रत्येक को दूसरे के साथ आदर्श व्यवहार करना चाहिए, जिससे सभी को उत्तरोत्तर प्रगति करने को लिए प्रेरणा मिलती रहे। कॉलेजों के कार्क्रम बहुत अच्छ जान पड़ते हैं। मैं वहां पहली मई के पंहुच जाऊंगा। आशा करता हूँ कि तुम बिलकुल अच्छे से हो।

सर्वदा तुम्हारा शुभाकांक्षी,

(हस्ताक्षर)


“au” को कभी “ou” भी लिखा जाता है। बाकी का लिप्यंतरण मानक है।