HI/BG 11.13: Difference between revisions

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==== श्लोक 13 ====
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:तत्रैकस्थं जगत्कृत्स्नं प्रविभक्तमनेकधा ।
 
:अपश्यद्देवदेवस्य शरीरे पाण्डवस्तदा ॥१३॥
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Latest revision as of 09:01, 8 August 2020

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 13

तत्रैकस्थं जगत्कृत्स्नं प्रविभक्तमनेकधा ।
अपश्यद्देवदेवस्य शरीरे पाण्डवस्तदा ॥१३॥

शब्दार्थ

तत्र—वहाँ; एक-स्थम्—एकत्र, एक स्थान में; जगत्—ब्रह्माण्ड; कृत्स्नम्—सम्पूर्ण; प्रविभक्तम्—विभाजित; अनेकधा—अनेक में; अपश्यत्—देखा; देव-देवस्य—भगवान् के; शरीरे—विश्वरूप में; पाण्डव:—अर्जुन ने; तदा—तब।

अनुवाद

उस समय अर्जुन भगवान् के विश्र्वरूप में एक ही स्थान पर स्थित हजारोंभागों में विभक्त ब्रह्माण्ड के अनन्त अंशों को देख सका |

तात्पर्य

तत्र (वहाँ) शब्द अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है | इससे सूचितहोता है कि जब अर्जुन ने विश्र्वरूप देखा, उस समय अर्जुन तथा कृष्ण दोनों ही रथ परबैठे थे | युद्धभूमि के अन्य लोग इस रूप को नहीं देख सके, क्योंकि कृष्ण ने केवलअर्जुन को दृष्टि प्रदान की थी | वह कृष्ण के शरीर में हजारों लोक देख सका | जैसाकि वैदिक शास्त्रों से पता चलता है कि ब्रह्माण्ड अनेक हैं और लोक भी अनेक हैं |इनमें से कुछ मिट्टी के बने हैं, कुछ सोने के, कुछ रत्नों के, कुछ बहुत बड़े हैं,तो कुछ बहुत बड़े नहीं हैं | अपने रथ पर बैठकर अर्जुन इन सबों को देख सकता था |किन्तु कोई यह नहीं जान पाया कि अर्जुन तथा कृष्ण के बीच क्या चल रहा था |