HI/BG 11.30: Difference between revisions
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Latest revision as of 09:25, 8 August 2020
श्लोक 30
- लेलिह्यसे ग्रसमानः समन्ताल्-
- लोकान्समग्रान्वदनैर्ज्वलद्भिः ।
- तेजोभिरापूर्य जगत्समग्रं
- भासस्तवोग्राः प्रतपन्ति विष्णो ॥३०॥
शब्दार्थ
लेलिह्यसे—चाट रहे हैं; ग्रसमान:—निगलते हुए; समन्तात्—समस्त दिशाओं से; लोकान्—लोगों को; समग्रान्—सभी; वदनै:—मुखों से; ज्वलद्भि:—जलते हुए; तेजोभि:—तेज से; आपूर्य—आच्छादित करके; जगत्—ब्रह्माण्ड को; समग्रम्—समस्त; भास:—किरणें; तव—आपकी; उग्रा:—भयंकर; प्रतपन्ति—झुलसा रही हैं; विष्णो—हे विश्वव्यापी भगवान्।
अनुवाद
हे विष्णु! मैं देखता हूँ कि आप अपने प्रज्जवलित मुखों से सभी दिशाओं के लोगों को निगलरहे हैं | आप सारे ब्रह्माण्ड को अपने तेज से आपूरित करके अपनीविकरालझुलसाती किरणों सहित प्रकट हो रहे हैं |