HI/BG 11.44: Difference between revisions
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Latest revision as of 13:56, 9 August 2020
श्लोक 44
- तस्मात्प्रणम्य प्रणिधाय कायं
- प्रसादये त्वामहमीशमीड्यम् ।
- पितेव पुत्रस्य सखेव सख्युः
- प्रियः प्रियायार्हसि देव सोढुम् ॥४४॥
शब्दार्थ
तस्मात्—अत:; प्रणम्य—प्रणाम करके; प्रणिधाय—प्रणत करके; कायम्—शरीर को; प्रसादये—कृपा की याचना करता हूँ; त्वाम्—आपसे; अहम्—मैं; ईशम्—भगवान् से; ईड्यम्—पूज्य; पिता इव—पिता तुल्य; पुत्रस्य—पुत्र का; सखा इव—मित्रवत्; सख्यु:—मित्र का; प्रिय:—प्रेमी; प्रियाया:—प्रिया का; अर्हसि—आपको चाहिए; देव—मेरे प्रभु; सोढुम्—सहन करना।
अनुवाद
आप प्रत्येक जीव द्वारा पूजनीय भगवान् हैं । अतः मैं गीरकर सादर प्रणामकरता हूँ और आपकी कृपा की याचना करता हूँ । जिस प्रकार पिता अपने पुत्र कीढिठाई सहन करता है, या मित्र अपने मित्र की घृष्टता सह लेता है, या प्रियअपनी प्रिया का अपराध सहन कर लेता है, उसी प्रकार आप कृपा करके मेरीत्रुटियों को सहन कर लें ।
तात्पर्य
कृष्ण के भक्त उनकेसाथ विविध प्रकार के सम्बन्ध रखते हैं – कोई कृष्ण को पुत्रवत्, कोई पतिरूप में, कोई मित्र रूप में या कोई स्वामी के रूप में मान सकता है । कृष्णऔर अर्जुन का सम्बन्ध मित्रता का है । जिस प्रकार पिता, पति या स्वामी सबअपराध सहन कर लेते हैं उसी प्रकार कृष्ण सहन करते हैं ।