HI/BG 11.53: Difference between revisions
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:शक्य एवंविधो द्रष्टुं दृष्टवानसि मां यथा ॥५३॥ | |||
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Latest revision as of 16:01, 9 August 2020
श्लोक 53
- नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया ।
- शक्य एवंविधो द्रष्टुं दृष्टवानसि मां यथा ॥५३॥
शब्दार्थ
न—कभी नहीं; अहम्—मैं; वेदै:—वेदाध्ययन से; न—कभी नहीं; तपसा—कठिन तपस्या द्वारा; न—कभी नहीं; दानेन—दान से; न—कभी नहीं; च—भी; इज्यया—पूजा से; शक्य:—सम्भव है; एवम्-विध:—इस प्रकार से; द्रष्टुम्—देख पाना; ²ष्टवान्—देख रहे; असि—तुम हो; माम्—मुझको; यथा—जिस प्रकार।
अनुवाद
तुम अपने दिव्य नेत्रों से जिस रूप का दर्शन कर रहे हो, उसे न तोवेदाध्ययन से, न कठिन तपस्या से, न दान से, न पूजा से ही जाना जा सकता है | कोई इन साधनों के द्वारा मुझे मेरे रूप में नहीं देख सकता |
तात्पर्य
कृष्ण पहले अपनी माता देवकी तथा पिता वासुदेव के समक्ष चतुर्भुजरूप में प्रकट हुए थे और तब उन्होंने अपना द्विभुज रूप धारण किया था | जोलोग नास्तिक हैं या भक्तिविहीन हैं, उनके लिए इस रहस्य को समझ पाना अत्यन्तकठिन है | जिन विद्वानों ने केवल व्याकरण विधि से या कोरी शैक्षिकयोग्यताओं के आधार पर वैदिक साहित्य का अध्ययन किया है, वे कृष्ण को नहींसमझ सकते | न ही वे लोग कृष्ण को समझ सकेंगे, जो औपचारिक पूजा करने के लिएमन्दिर जाते हैं | वे भले ही वहाँ जाते रहें, वे कृष्ण के असली रूप को नहींसमझ सकेंगे | कृष्ण को तो केवल भक्तिमार्ग से समझा जा सकता है, जैसा किकृष्ण ने स्वयं अगले श्लोक में बताया है |