HI/BG 13.16

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His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 16

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शब्दार्थ

सर्व—समस्त; इन्द्रिय—इन्द्रियों का; गुण—गुणों का; आभासम्—मूल स्रोत; सर्व—समस्त; इन्द्रिय—इन्द्रियों से; विवॢजतम्—विहीन; असक्तम्—अनासक्त; सर्व-भृत्—प्रत्येक का पालनकर्ता; च—भी; एव—निश्चय ही; निर्गुणम्—गुणविहीन; गुणभोक्तृ—गुणों का स्वामी; च—भी।

अनुवाद

परमसत्य जड़ तथा जंगम समस्त जीवों के बाहर तथा भीतर स्थित हैं | सूक्ष्म होने के कारण वे भौतिक इन्द्रियों के द्वारा जानने या देखने से परे हैं | यद्यपि वे अत्यन्त दूर रहते हैं, किन्तु हम सबों के निकट भी हैं |

तात्पर्य

वैदिक साहित्य से हम जानते हैं कि परम-पुरुष नारायण प्रत्येक जीव के बाहर तथा भीतर निवास करने वाले हैं | वे भौतिक तथा आध्यात्मिक दोनों ही जगतों में विद्यमान रहते हैं | यद्यपि वे बहुत दूर हैं, फिर भी वे हमारे निकट रहते हैं | ये वैदिक साहित्य के वचन हैं | आसीनो दूरं व्रजति शयानो याति सर्वतः (कठोपनिषद् १.२.२१) | चूँकि वे निरन्तर दिव्य आनन्द भोगते रहते हैं , अतएव हम यह नहीं समझ पाते कि वे सारे ऐश्र्वर्य का भोग किस तरह कर सकते हैं | हम इन भौतिक इन्द्रियों से न तो उन्हें देख पाते हैं, न समझ पाते हैं | अतएव वैदिक भाषा में कहा गया है कि उन्हें समझने में हमारा भौतिक मन तथा इन्द्रियाँ असमर्थ हैं | किन्तु जिसने, भक्ति में कृष्णभावनामृत का अभ्यास करते हुए, अपने मन तथा इन्द्रियों को शुद्ध कर लिया है, वह उन्हें निरन्तर देख सकता है | ब्रह्मसंहिता में इसकी पुष्टि हुई है कि परमेश्र्वर के लिए जिस भक्त में प्रेम उपज चुका है, वह निरन्तर उनका दर्शन कर सकता है | और भगवद्गीता में (११.५४) इसकी पुष्टि हुई है कि उन्हें केवल भक्ति द्वारा देखा तथा समझा जा सकता है | भक्त्या त्वनन्यया शक्यः|