HI/BG 13.29: Difference between revisions

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==== श्लोक 29 ====
==== श्लोक 29 ====


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:समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम् ।
:न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम् ॥२९॥
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==== शब्दार्थ ====
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Latest revision as of 17:15, 10 August 2020

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 29

समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम् ।
न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम् ॥२९॥


शब्दार्थ

समम्—समान रूप से; पश्यन्—देखते हुए; हि—निश्चय ही; सर्वत्र—सभी जगह; समवस्थितम्—समान रूप से स्थित; ईश्वरम्—परमात्मा को; न—नहीं; हिनस्ति—नीचे गिराता है; आत्मना—मन से; आत्मानम्—आत्मा को; तत:—तब; याति—पहुुँचता है; पराम्—दिव्य; गतिम्—गन्तव्य को।

अनुवाद

जो व्यक्ति परमात्मा को सर्वत्र तथा प्रत्येक जीव में समान रूप से वर्तमान देखता है, वह अपने मन के द्वारा अपने आपको भ्रष्ट नहीं करता | इस प्रकार वह दिव्य गन्तव्य को प्राप्त करता है |

तात्पर्य

जीव, अपना भौतिक अस्तित्व स्वीकार करने के कारण, अपने आध्यात्मिक अस्तित्व से पृथक् हो गया है | किन्तु यदि वह यह समझता है कि परमेश्र्वर अपने परमात्मा स्वरूप में सर्वत्र स्थित हैं, अर्थात् यदिवह भगवान् की उपस्थिति प्रत्येक वस्तु में देखता है, तो वह विघटनकारी मानसिकता से अपने आपको नीचे नहीं गिराता, और इसलिए वह क्रमशः वैकुण्ठ-लोक की ओर बढ़ता जाता है | सामान्यतया मन इन्द्रियतृप्तिकारी कार्यों में लीन रहता है, लेकिन जब वही मन परमात्मा की ओर अन्मुख होता है, तो मनुष्य आध्यात्मिक ज्ञान में आगे बढ़ जाता है |