HI/BG 13.33

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His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 33

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शब्दार्थ

यथा—जिस प्रकार; सर्व-गतम्—सर्वव्यापी; सौक्ष्म्यात्—सूक्ष्म होने के कारण; आकाशम्—आकाश; न—कभी नहीं; उपलिह्रश्वयते—लिह्रश्वत होता है; सर्वत्र—सभी जगह; अवस्थित:—स्थित; देहे—शरीर में; तथा—उसी प्रकार; आत्मा—आत्मा,स्व; न—कभी नहीं; उपलिह्रश्वयते—लिह्रश्वत होता है।

अनुवाद

यद्यपि आकाश सर्वव्यापी है, किन्तु अपनी सूक्ष्म प्रकृति के कारण, किसी वस्तु से लिप्त नहीं होता | इसी तरह ब्रह्मदृष्टि में स्थित आत्मा, शरीर में स्थित रहते हुए भी, शरीर से लिप्त नहीं होता |

तात्पर्य

वायु जल, कीचड़, मल तथा अन्य वस्तुओं में प्रवेश करती है, फिर भी वह किसी वस्तु से लिप्त नहीं होती | इसी प्रकार से जीव विभिन्न प्रकार के शरीरों में स्थित होकर भी अपनी सूक्ष्म प्रकृति के कारण उनसे पृथक बना रहता है | अतः इन भौतिक आँखों से यह देख पाना असम्भव है कि जीव किस प्रकार इस शरीर के सम्पर्क में है और शरीर के विनष्ट हो जाने पर वह उससे कैसे विलग हो जाता है | कोई भी विज्ञानी इसे निश्चित नहीं कर सकता |