HI/BG 14.11

Revision as of 16:14, 11 August 2020 by Harshita (talk | contribs) (Bhagavad-gita Compile Form edit)
(diff) ← Older revision | Latest revision (diff) | Newer revision → (diff)
His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 11

k

शब्दार्थ

सर्व-द्वारेषु—सारे दरवाजों में; देहे अस्मिन्—इस शरीर में; प्रकाश:—प्रकाशित करने का गुण; उपजायते—उत्पन्न होता है; ज्ञानम्—ज्ञान; यदा—जब; तदा—उस समय; विद्यात्—जानो; विवृद्धम्—बढ़ा हुआ; सत्त्वम्—सतोगुण; इति उत—ऐसा कहा गया है।

अनुवाद

सतोगुण की अभीव्यक्ति को तभी अनुभव किया जा सकता है, जब शरीर के सारे द्वार ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित होते हैं |

तात्पर्य

शरीर में नौ द्वार हैं – दो आँखें, दो कान, दो नथुने, मुँह, गुदा तथा उपस्थ | जब प्रत्येक द्वार सत्त्व के लक्षण से दीपित हो जायें, तो समझना चाहिए कि उसमें सतोगुण विकसित हो चूका है | सतोगुण में सारी वस्तुएँ अपनी सही स्थिति में दिखती हैं, सही-सही सुनाई पड़ता है और सही ढंग से उन वस्तुओं का स्वाद मिलता है | मनुष्य का अन्तः तथा बाह्य शुद्ध हो जाता है | प्रत्येक द्वार में सुख के लक्षण दिखते हैं और यही स्थिति होती है सत्त्वगुण की |