HI/BG 18.23

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His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 23

j

शब्दार्थ

नियतम्—नियमित; सङ्ग-रहितम्—आसक्ति रहित; अराग-द्वेषत:—राग-द्वेष से रहित; कृतम्—किया गया; अफल-प्रेह्रश्वसुना—फल की इच्छा से रहित वाले के द्वारा; कर्म—कर्म; यत्—जो; तत्—वह; सात्त्विकम्—सतोगुणी; उच्यते—कहा जाता है।

अनुवाद

जो कर्म नियमित है और जो आसक्ति, राग या द्वेष से रहित कर्मफल की चाह के बिना किया जाता है, वह सात्त्विक कहलाता है |

तात्पर्य

विभिन्न आश्रमों तथा समाज के वर्णों के आधार पर शास्त्रों में संस्तुत वृत्तिपरक कर्म, जो अनासक्त भाव से अथवा स्वामित्व के अधिकारों के बिना, प्रेम-घृणा-भावरहित परमात्मा को प्रसन्न करने के लिए आसक्ति या अधिकार की भावना के बिना कृष्णभावनामृत में किये जाते हैं, सात्त्विक कहलाते हैं |