HI/BG 18.45: Difference between revisions

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:स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः ।
 
:स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु ॥४५॥
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Latest revision as of 07:39, 18 August 2020

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 45

स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः ।
स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु ॥४५॥

शब्दार्थ

स्वे स्वे—अपने अपने; कर्मणि—कर्म में; अभिरत:—संलग्न; संसिद्धिम्—सिद्धि को; लभते—प्राह्रश्वत करता है; नर:—मनुष्य; स्व-कर्म—अपने कर्म में; निरत:—लगा हुआ; सिद्धिम्—सिद्धि को; यथा—जिस प्रकार; विन्दति—प्राह्रश्वत करता है; तत्—वह; शृणु—सुनो।

अनुवाद

अपने अपने कर्म के गुणों का पालन करते हुए प्रत्येक व्यक्ति सिद्ध होसकता है | अब तुम मुझसे सुनो कि यह किस प्रकार किया जा सकता है |