HI/BG 18.59: Difference between revisions

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==== श्लोक 59 ====
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:यदहंकारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे ।
 
:मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति ॥५९॥
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Latest revision as of 08:06, 18 August 2020

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 59

यदहंकारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे ।
मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति ॥५९॥

शब्दार्थ

यत्—यदि; अहङ्कारम्—मिथ्या अहंकार की; आश्रित्य—शरण लेकर; न योत्स्ये—मैं नहीं लड़ूँगा; इति—इस प्रकार; मन्यसे—तुम सोचते हो; मिथ्या एष:—तो यह सब झूठ है; व्यवसाय:—संकल्प; ते—तुम्हारा; प्रकृति:—भौतिक प्रकृति; त्वाम्—तुमको; नियोक्ष्यति—लगा लेगी।

अनुवाद

यदि तुम मेरे निर्देशानुसार कर्म नहीं करते और युद्ध में प्रवृत्त नहीं होते हो, तो तुम कुमार्ग पर जाओगे । तुम्हें अपने स्वभाव वश युद्ध में लगना पड़ेगा ।

तात्पर्य

अर्जुन एक सैनिक था और क्षत्रिय स्वभाव लेकर जन्मा था । अतएव उसका स्वाभाविक कर्तव्य था कि वह युद्ध करे । लेकिन मिथ्या अहंकारवश वह डर रहा था कि अपने गुरु, पितामह तथा मित्रों का वध करके वह पाप का भागी होगा । वास्तव में वह अपने को अपने कर्मों का स्वामी जान रहा था, मानो वही ऐसे कर्मों के अच्छे-बुरे फलों का निर्देशन कर रहा हो । वह भूल गया कि वहाँ पर साक्षात् भगवान् उपस्थित हैं और उसे युद्ध करने का आदेश दे रहे हैं । यही है बद्धजीव की विस्मृति । परम पुरुष निर्देश देते हैं कि क्या अच्छा है और क्या बुरा है और मनुष्य को जीवन-सिद्धि प्राप्त करने के लिए केवल कृष्ण भावना मृत में कर्म करना है । कोई भी अपने भाग्य का निर्णय ऐसे नहीं कर सकता जैसे भगवान् कर सकते हैं । अतएव सर्वोत्तम मार्ग यही है कि परमेश्र्वर से निर्देश प्राप्त करके कर्म किया जाय । भगवान् या भगवान् के प्रतिनिधि स्वरूप गुरु के आदेश की वह कभी उपेक्षा न करे । भगवान् के आदेश को बिना किसी हिचक के पूरा करने के लिए वह कर्म करे – इससे सभी परिस्थियों में सुरक्षित रहा जा सकेगा ।