HI/Prabhupada 0273 - आर्य का मतलब है जो कृष्ण भावनामृत में उन्नत है: Difference between revisions
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वही ब्राह्मण है, उदार होना । और ... एतद विदित्वा प्रयाति स ब्राह्मण: , जो जानता है ... इसलिए प्रहलाद महाराज कहते हैं: | वही ब्राह्मण है, उदार होना । और ... एतद विदित्वा प्रयाति स ब्राह्मण: , जो जानता है ... इसलिए प्रहलाद महाराज कहते हैं: दुर्लभम मानुष्यम जन्म अध्रुवम अर्थदम ([[Vanisource:SB 7.6.1|श्रीमद भागवतम ७.६.१]])| वे अपनी कक्षा के दोस्तों के बीच उपदेश दे रहे थे । उनका जन्म एक राक्षसी परिवार में हुआ, हिरण्यकशिपु । और उनके कक्षा के मित्र, वे भी उसी श्रेणी के । तो प्रहलाद महाराज उन्हें सलाह दे रहे थे: "मेरे प्रिय भाइयों, हमें कृष्ण भावनामृत को अपनाना चाहिए ।" तो दूसरे लड़के, वे कृष्ण भावनामृत के बारे में क्या जानते हैं ...? प्रहलाद महाराज जन्म से ही मुक्त हैं । तो उन्होंने कहा: "यह कृष्ण भावनामृत है क्या?" वे नहीं समझ सके । तो वे उन्हें समझा रहे थे: दुर्लभम मानुष्यम जन्म तद अपि अध्रुवम अर्थदम | यह मानव शरीर दुर्लभम है । लबध्वा सुदुर्लभम इडम बहु सम्भवन्ते ([[Vanisource:SB 11.9.29|श्रीमद भागवतम ७.६.१]])। | ||
तो वास्तव में | यह मानव शरीर भौतिक प्रकृति द्वारा दिया गया एक महान रियायत है । लोग इतने दुष्ट और मूर्ख हैं । उन्हे समझ में नहीं आता है कि इस मानव जीवन का मूल्य क्या है । वे बिल्लियों और कुत्तों की तरह इन्द्रिय संतुष्टि में इस शरीर को संलग्न करते हैं । शास्त्र इसलिए कहता है: "नहीं, यह मनुष्य शरीर सुअर और कुत्तों की तरह खराब करने के लिए नहीं है ।" नायम देहो देह-भाजाम नृलोके । हर किसी का एक शरीर, भौतिक शरीर है । लेकिन नृलोके, मानव समाज में, इस शरीर को खराब होने नहीं देना है । नायम देहो देह-भाजाम नृलोके कष्टान कामान अर्हति विद-भूजाम ये ([[Vanisource:SB 5.5.1|श्रीमद भागवतम ५.५.१]]) | | ||
यह मानव जीवन, बस बेकार में कड़ी मेहनत करना, दिन और रात, इन्द्रिय संतुष्टि के लिए । यह सूअर और कुत्तों का काम है । वे भी वही कर रहे हैं, पूरे दिन और रात, कड़ी मेहनत कर रहे हैं सिर्फ इन्द्रिय संतुष्टि के लिए । तो इसलिए मानव समाज में विभाजन की व्यवस्था होनी चाहिए । वही वर्णाश्रम धर्म कहा जाता है । वही वैदिक सभ्यता है । यही वास्तव में आर्य-समाज कहा जाता है । आर्य समाज का मतलब नहीं है कि बदमाश अौर मूर्ख बनकर भगवान के अस्तित्व का इनकार करना । नहीं । वह अनार्य है । जैसे श्री कृष्ण नें अर्जुन को डांटा: अनार्य-जुष्ट । "तुम अनार्य की तरह बात कर रहे हो ।" जो श्री कृष्ण के प्रति जागरूक नहीं है, वह अनार्य है । अनार्य । | |||
आर्य का मतलब है जो कृष्ण भावनामृत में उन्नत है । तो वास्तव में आर्य समान का मतलब है कृष्ण के प्रति जागरूक होना । अन्यथा, फर्जी, फर्जी आर्य समाज । क्योंकि यहाँ भगवद गीता कहता है, श्री कृष्ण अर्जुन को डाटते हुए कहते हैं, क्योंकि वह लड़ने के लिए मना कर रहा था, क्योंकि उसे पता नहीं है कि उसका कर्तव्य क्या है, फिर अर्जुन यहाँ स्वीकार कर रहे हैं कि कार्पण्य दोशोपहत-स्वभाव: ([[HI/BG 2.7|भ.गी. २.७]]) | "हाँ, मैं अनार्य हूँ । मैं अनार्य बन गया हूँ । क्योंकि मैं अपना कर्तव्य भूल गया हूँ ।" तो वास्तव में आर्यन समाज का मतलब है कृष्ण के प्रति जागरूक समाज, आंतरराष्ट्रीय कृष्ण भावनामृत संघ... ये आर्य है । फर्जी नहीं । | |||
तो यहाँ, अर्जुन समझा रहे हैं खुद को उस स्थीति में डाल कर, : "हाँ, कार्पण्य दोशो । क्योंकि मैं अपने कर्तव्य को भूल रहा हूँ, इसलिए उपहत-स्वभाव:, मैं अपने प्राकृतिक प्रवृत्तियों में भ्रमित हूँ । " एक क्षत्रिय को हमेशा सक्रिय होना चाहिए । जब भी युद्ध होता है, लड़ाई होती है, उन्हे बहुत ज्यादा उत्साही होना चाहिए | एक क्षत्रिय को, अगर एक और क्षत्रिय कहता है: "मैं तुम्हारे साथ लड़ना चाहता हूँ ," वह, ओह, वह मना नहीं कर सकता । "हाँ, आ जाओ । लड़ो | तलवार उठाअो ।" तुरन्त: "चलो"। यही क्षत्रिय है । अब वह लड़ने के लिए मना कर रहा है । | |||
इसलिए, वह समझ सकता है ... तुम इस तरफ खड़े हो सकते हो, सामने नहीं । वह अपना कर्तव्य भूल रहा है, क्षत्रिय कर्तव्य । इसलिए, वह स्वीकार करता है: हाँ, कार्पण्य-दोश । कार्पण्य दोशोपहत-स्वभाव: ([[HI/BG 2.7|भ.गी. २.७]]) । मैं मेरे प्राकृतिक कर्तव्य को भूल रहा हूँ । इसलिए मैं कंजूस हो गया हूँ । इसलिए मेरी ..." जब तुम कंजूस हो जाते हो, यह एक रोगग्रस्त अवस्था है । फिर तुम्हारा कर्तव्य क्या है? तो एक एसे व्यक्ति के पास जाओ ... जैसे जब तुम रोगग्रस्त हो जाते हो, तुम एक चिकित्सक के पास जाते हो और उससे पूछते हो, "श्रीमान, क्या करूँ ? मैं अब इस रोग से पीड़ित हूँ ।" यह तुम्हारा कर्तव्य है । | |||
इसी तरह, जब हम अपने कर्तव्यों में भ्रमित होते हैं, या हम अपने कर्तव्यों को भूल जाते हैं, यह बहुत अच्छा है कि हम वरिष्ठ व्यक्ति के पास जाऍ और उससे पूछें कि क्या करना चाहिए । तो कृष्ण से बेहतर व्यक्ति कौन सकता है? इसलिए अर्जुन कहते हैं: पृच्छामि त्वाम । "मैं आपसे पूछ रहा हूँ । क्योंकि यह मेरा कर्तव्य है । मैं अब मेरे कर्तव्य से चूक रहा हूँ, दोषपूर्ण । तो यह अच्छा नहीं है । तो मुझे पूछना चाहिए उससे जो मेरे से वरिष्ठ है।" यही कर्तव्य है । तद विज्ञानार्थम स गुरुम एव अभीगच्छेत (मुंडक उपनिषद १.२.१२) | यह वैदिक कर्तव्य है । हर कोई हैरान है । हर कोई इस भौतिक संसार में दुखी है, हैरान है । लेकिन वह एक प्रामाणिक गुरू को नहीं खोजता । नहीं । यही कार्पण्य दोश है । यही कार्पण्य दोश है । इधर, अर्जुन कार्पण्य दोश से बाहर आ रहे हैं । कैसे? अब वे कृष्ण से पूछ रहे हैं । पृच्छामि त्वाम । "मेरे प्यारे कृष्ण, आप सबसे वरिष्ठ व्यक्ति हैं । मुझे पता है । आप श्री कृष्ण हैं । तो मैं हैरान हूँ । असल में, मैं अपने कर्तव्य को भूल रहा हूँ । इसलिए, मैं आपसे पूछ रहा हूँ ।" | |||
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Latest revision as of 12:37, 12 August 2021
Lecture on BG 2.7 -- London, August 7, 1973
वही ब्राह्मण है, उदार होना । और ... एतद विदित्वा प्रयाति स ब्राह्मण: , जो जानता है ... इसलिए प्रहलाद महाराज कहते हैं: दुर्लभम मानुष्यम जन्म अध्रुवम अर्थदम (श्रीमद भागवतम ७.६.१)| वे अपनी कक्षा के दोस्तों के बीच उपदेश दे रहे थे । उनका जन्म एक राक्षसी परिवार में हुआ, हिरण्यकशिपु । और उनके कक्षा के मित्र, वे भी उसी श्रेणी के । तो प्रहलाद महाराज उन्हें सलाह दे रहे थे: "मेरे प्रिय भाइयों, हमें कृष्ण भावनामृत को अपनाना चाहिए ।" तो दूसरे लड़के, वे कृष्ण भावनामृत के बारे में क्या जानते हैं ...? प्रहलाद महाराज जन्म से ही मुक्त हैं । तो उन्होंने कहा: "यह कृष्ण भावनामृत है क्या?" वे नहीं समझ सके । तो वे उन्हें समझा रहे थे: दुर्लभम मानुष्यम जन्म तद अपि अध्रुवम अर्थदम | यह मानव शरीर दुर्लभम है । लबध्वा सुदुर्लभम इडम बहु सम्भवन्ते (श्रीमद भागवतम ७.६.१)।
यह मानव शरीर भौतिक प्रकृति द्वारा दिया गया एक महान रियायत है । लोग इतने दुष्ट और मूर्ख हैं । उन्हे समझ में नहीं आता है कि इस मानव जीवन का मूल्य क्या है । वे बिल्लियों और कुत्तों की तरह इन्द्रिय संतुष्टि में इस शरीर को संलग्न करते हैं । शास्त्र इसलिए कहता है: "नहीं, यह मनुष्य शरीर सुअर और कुत्तों की तरह खराब करने के लिए नहीं है ।" नायम देहो देह-भाजाम नृलोके । हर किसी का एक शरीर, भौतिक शरीर है । लेकिन नृलोके, मानव समाज में, इस शरीर को खराब होने नहीं देना है । नायम देहो देह-भाजाम नृलोके कष्टान कामान अर्हति विद-भूजाम ये (श्रीमद भागवतम ५.५.१) |
यह मानव जीवन, बस बेकार में कड़ी मेहनत करना, दिन और रात, इन्द्रिय संतुष्टि के लिए । यह सूअर और कुत्तों का काम है । वे भी वही कर रहे हैं, पूरे दिन और रात, कड़ी मेहनत कर रहे हैं सिर्फ इन्द्रिय संतुष्टि के लिए । तो इसलिए मानव समाज में विभाजन की व्यवस्था होनी चाहिए । वही वर्णाश्रम धर्म कहा जाता है । वही वैदिक सभ्यता है । यही वास्तव में आर्य-समाज कहा जाता है । आर्य समाज का मतलब नहीं है कि बदमाश अौर मूर्ख बनकर भगवान के अस्तित्व का इनकार करना । नहीं । वह अनार्य है । जैसे श्री कृष्ण नें अर्जुन को डांटा: अनार्य-जुष्ट । "तुम अनार्य की तरह बात कर रहे हो ।" जो श्री कृष्ण के प्रति जागरूक नहीं है, वह अनार्य है । अनार्य ।
आर्य का मतलब है जो कृष्ण भावनामृत में उन्नत है । तो वास्तव में आर्य समान का मतलब है कृष्ण के प्रति जागरूक होना । अन्यथा, फर्जी, फर्जी आर्य समाज । क्योंकि यहाँ भगवद गीता कहता है, श्री कृष्ण अर्जुन को डाटते हुए कहते हैं, क्योंकि वह लड़ने के लिए मना कर रहा था, क्योंकि उसे पता नहीं है कि उसका कर्तव्य क्या है, फिर अर्जुन यहाँ स्वीकार कर रहे हैं कि कार्पण्य दोशोपहत-स्वभाव: (भ.गी. २.७) | "हाँ, मैं अनार्य हूँ । मैं अनार्य बन गया हूँ । क्योंकि मैं अपना कर्तव्य भूल गया हूँ ।" तो वास्तव में आर्यन समाज का मतलब है कृष्ण के प्रति जागरूक समाज, आंतरराष्ट्रीय कृष्ण भावनामृत संघ... ये आर्य है । फर्जी नहीं ।
तो यहाँ, अर्जुन समझा रहे हैं खुद को उस स्थीति में डाल कर, : "हाँ, कार्पण्य दोशो । क्योंकि मैं अपने कर्तव्य को भूल रहा हूँ, इसलिए उपहत-स्वभाव:, मैं अपने प्राकृतिक प्रवृत्तियों में भ्रमित हूँ । " एक क्षत्रिय को हमेशा सक्रिय होना चाहिए । जब भी युद्ध होता है, लड़ाई होती है, उन्हे बहुत ज्यादा उत्साही होना चाहिए | एक क्षत्रिय को, अगर एक और क्षत्रिय कहता है: "मैं तुम्हारे साथ लड़ना चाहता हूँ ," वह, ओह, वह मना नहीं कर सकता । "हाँ, आ जाओ । लड़ो | तलवार उठाअो ।" तुरन्त: "चलो"। यही क्षत्रिय है । अब वह लड़ने के लिए मना कर रहा है ।
इसलिए, वह समझ सकता है ... तुम इस तरफ खड़े हो सकते हो, सामने नहीं । वह अपना कर्तव्य भूल रहा है, क्षत्रिय कर्तव्य । इसलिए, वह स्वीकार करता है: हाँ, कार्पण्य-दोश । कार्पण्य दोशोपहत-स्वभाव: (भ.गी. २.७) । मैं मेरे प्राकृतिक कर्तव्य को भूल रहा हूँ । इसलिए मैं कंजूस हो गया हूँ । इसलिए मेरी ..." जब तुम कंजूस हो जाते हो, यह एक रोगग्रस्त अवस्था है । फिर तुम्हारा कर्तव्य क्या है? तो एक एसे व्यक्ति के पास जाओ ... जैसे जब तुम रोगग्रस्त हो जाते हो, तुम एक चिकित्सक के पास जाते हो और उससे पूछते हो, "श्रीमान, क्या करूँ ? मैं अब इस रोग से पीड़ित हूँ ।" यह तुम्हारा कर्तव्य है ।
इसी तरह, जब हम अपने कर्तव्यों में भ्रमित होते हैं, या हम अपने कर्तव्यों को भूल जाते हैं, यह बहुत अच्छा है कि हम वरिष्ठ व्यक्ति के पास जाऍ और उससे पूछें कि क्या करना चाहिए । तो कृष्ण से बेहतर व्यक्ति कौन सकता है? इसलिए अर्जुन कहते हैं: पृच्छामि त्वाम । "मैं आपसे पूछ रहा हूँ । क्योंकि यह मेरा कर्तव्य है । मैं अब मेरे कर्तव्य से चूक रहा हूँ, दोषपूर्ण । तो यह अच्छा नहीं है । तो मुझे पूछना चाहिए उससे जो मेरे से वरिष्ठ है।" यही कर्तव्य है । तद विज्ञानार्थम स गुरुम एव अभीगच्छेत (मुंडक उपनिषद १.२.१२) | यह वैदिक कर्तव्य है । हर कोई हैरान है । हर कोई इस भौतिक संसार में दुखी है, हैरान है । लेकिन वह एक प्रामाणिक गुरू को नहीं खोजता । नहीं । यही कार्पण्य दोश है । यही कार्पण्य दोश है । इधर, अर्जुन कार्पण्य दोश से बाहर आ रहे हैं । कैसे? अब वे कृष्ण से पूछ रहे हैं । पृच्छामि त्वाम । "मेरे प्यारे कृष्ण, आप सबसे वरिष्ठ व्यक्ति हैं । मुझे पता है । आप श्री कृष्ण हैं । तो मैं हैरान हूँ । असल में, मैं अपने कर्तव्य को भूल रहा हूँ । इसलिए, मैं आपसे पूछ रहा हूँ ।"