HI/Prabhupada 0796 - मत सोचो कि मैं बोल रहा हूँ । मैं बस साधन हूँ । असली वक्ता भगवान हैं: Difference between revisions
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तो यहाँ कहा गया है श्री-भगवान उवाच । | तो यहाँ कहा गया है श्री-भगवान उवाच । पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान बोल रहे हैं । वे बोल रहे हैं का मतलब है कि वे सर्व ज्ञान के साथ बोल रहे हैं । उनके ज्ञान में कोई दोष नहीं है । हमारे ज्ञान में कई खामियां है । हम भ्रमित हैं, हम गलती करते हैं । कभी कभी हम कुछ बोलते हैं और हमारे दिल में कुछ और होता है । मतलब हम धोखा देते हैं । और हमारे अनुभव सभी अपूर्ण हैं कयोंकि हमारी इन्द्रियॉ अपूर्ण हैं । इसलिए मैं तुमसे कुछ भी नहीं बोल सकता हूँ । अगर तुम मुझसे पूछते हो, "स्वामीजी, तो अाप क्या बोल रहे हैं ?" मैं केवल वही बोल रहा हूँ जो पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान नें कहा है । मैं केवल वही शब्द दोहरा रहा हूँ । बस इतना ही । मत सोचो की मैं बोल रहा हूँ । मैं बस साधन हूँ । असली वक्ता भगवान हैं जो अंतर भी हैं और बाहर भी । तो वे क्या कहते हैं ? वे कहते हैं, अनाश्रितम... | ||
अनाश्रित: कर्म | :अनाश्रित: कर्म फलम | ||
कार्यम कर्म करोति य: | :कार्यम कर्म करोति य: | ||
स सन्यासी च योगी च | :स सन्यासी च योगी च | ||
न निराग्निर न चाक्रिय: | :न निराग्निर न चाक्रिय: | ||
:([[ | :([[HI/BG 6.1|भ.गी. ६.१]]) | ||
अनाश्रित: अनाश्रित का मतलब है किसी भी आश्रय के | अनाश्रित: | अनाश्रित: का मतलब है किसी भी आश्रय के बिना । कर्म-फलम । हर कोई काम कर रहा है कुछ परिणाम की उम्मीद से । तुम जो भी करते हो, काम, तुम कुछ परिणाम की उम्मीद करते हो । यहां भगवान कहते हैं, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान कहते हैं, कि "जो परिणाम के किसी भी अाशा के बिना काम करता है..." वह काम करता है । तो अगर वह किसी भी परिणाम की उम्मीद नहीं करता है, तो क्यों वह काम करता है ? अगर मैं किसी से कहूँ इस तरह से काम करने के लिए । फिर वह कुछ उम्मीद करेगा, कुछ परिणाम, कुछ पारिश्रमिक, कुछ इनाम, या कुछ वेतन । यहां काम करने का यही तरीका है । लेकिन कृष्ण कहते हैं, अनाश्रित: कर्म फलम, "जो परिणाम या इनाम की किसी भी उम्मीद के बिना काम करता है ।" तो फिर क्यों वह काम करता है ? कार्यम । "यह मेरा कर्तव्य है । यह मेरा कर्तव्य है ।" परिणाम के लिए नहीं, लेकिन कर्तव्य के रूप में । "मैं कर्तव्य बाध्य हूँ यह करने के लिए ।" कार्यम कर्म करोति य: । | ||
ऐसे, अगर कोई काम करता है, स सन्यासी, वह सन्यासी है । जीवन के चार चरण हैं वैदिक संस्कृति के अनुसार । हमने कई बार समझाया है कि ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ, और सन्यासी। ब्रह्मचारी मतलब छात्र जीवन, आध्यात्मिक समझ में प्रशिक्षित किए जाना । कृष्ण भावनामृत में, पूरी तरह से प्रशिक्षित होना । उसे ब्रह्मचारी कहा जाता है । फिर, पूर्ण प्रशिक्षण के बाद, वह पत्नी को स्वीकार करता है, वह शादी करता है, और परिवार और बच्चों के साथ रहता है । यही गृहस्थ कहा जाता है । फिर, पचास साल के बाद, वह बच्चों को छोड़ देता है और घर से बाहर चला जाता है अपनी पत्नी के साथ और पवित्र स्थानों की यात्रा करता है । यही वानप्रस्थ कहा जाता है, सेवानिवृत्त जीवन । और अंत में वह अपनी पत्नी को अपने बच्चों की, सयाना बच्चो की, देखभाल में छोड़ देता है, और वह अकेला रहता है । और यह सन्यास कहा जाता है । तो जीवन के अाश्रम हैं । | |||
अब, कृष्ण कहते हैं कि केवल त्यागना ही सब कुछ नहीं है । केवल त्यागना सब कुछ नहीं है । कुछ कर्तव्य होना चाहिए । कार्यम । कार्यम का मतलब "यह मेरा कर्तव्य है ।" अब क्या है वह कर्तव्य ? उसने परिवारिक जीवन का त्याग कर दिया है । उसे कोई परेशानी नहीं है कि कैसे अपनी पत्नी और बच्चों का पोषण करना है । फिर उसका कर्तव्य क्या है ? वह कर्तव्य बहुत जिम्मेदारी का कर्तव्य है - कृष्ण के लिए काम करना । कार्यम । | |||
कार्य का मतलब है यही वास्तविक कर्तव्य है । हमारे जीवन में कर्तव्य दो प्रकार के होते हैं । एक कर्तव्य है माया की सेवा, और दूसरा, एक और कर्तव्य सत्य की सेवा है । जब तुम सत्य की सेवा करते हो वह असली सन्यास कहा जाता है । अौर जब माया की सेवा, वह माया कहा जाता है । अब, या तो सत्य की सेवा करो या माया की सेवा, मैं एसी स्थिति में हूँ कि मुझे सेवा तो करनी है । मेरी स्थिति मालिक बनने की नहीं है परन्तु नौकर बनने की है । यही मेरी असली स्थिति है । | |||
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Latest revision as of 17:51, 1 October 2020
Lecture on BG 6.1-4 -- New York, September 2, 1966
तो यहाँ कहा गया है श्री-भगवान उवाच । पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान बोल रहे हैं । वे बोल रहे हैं का मतलब है कि वे सर्व ज्ञान के साथ बोल रहे हैं । उनके ज्ञान में कोई दोष नहीं है । हमारे ज्ञान में कई खामियां है । हम भ्रमित हैं, हम गलती करते हैं । कभी कभी हम कुछ बोलते हैं और हमारे दिल में कुछ और होता है । मतलब हम धोखा देते हैं । और हमारे अनुभव सभी अपूर्ण हैं कयोंकि हमारी इन्द्रियॉ अपूर्ण हैं । इसलिए मैं तुमसे कुछ भी नहीं बोल सकता हूँ । अगर तुम मुझसे पूछते हो, "स्वामीजी, तो अाप क्या बोल रहे हैं ?" मैं केवल वही बोल रहा हूँ जो पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान नें कहा है । मैं केवल वही शब्द दोहरा रहा हूँ । बस इतना ही । मत सोचो की मैं बोल रहा हूँ । मैं बस साधन हूँ । असली वक्ता भगवान हैं जो अंतर भी हैं और बाहर भी । तो वे क्या कहते हैं ? वे कहते हैं, अनाश्रितम...
- अनाश्रित: कर्म फलम
- कार्यम कर्म करोति य:
- स सन्यासी च योगी च
- न निराग्निर न चाक्रिय:
- (भ.गी. ६.१)
अनाश्रित: | अनाश्रित: का मतलब है किसी भी आश्रय के बिना । कर्म-फलम । हर कोई काम कर रहा है कुछ परिणाम की उम्मीद से । तुम जो भी करते हो, काम, तुम कुछ परिणाम की उम्मीद करते हो । यहां भगवान कहते हैं, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान कहते हैं, कि "जो परिणाम के किसी भी अाशा के बिना काम करता है..." वह काम करता है । तो अगर वह किसी भी परिणाम की उम्मीद नहीं करता है, तो क्यों वह काम करता है ? अगर मैं किसी से कहूँ इस तरह से काम करने के लिए । फिर वह कुछ उम्मीद करेगा, कुछ परिणाम, कुछ पारिश्रमिक, कुछ इनाम, या कुछ वेतन । यहां काम करने का यही तरीका है । लेकिन कृष्ण कहते हैं, अनाश्रित: कर्म फलम, "जो परिणाम या इनाम की किसी भी उम्मीद के बिना काम करता है ।" तो फिर क्यों वह काम करता है ? कार्यम । "यह मेरा कर्तव्य है । यह मेरा कर्तव्य है ।" परिणाम के लिए नहीं, लेकिन कर्तव्य के रूप में । "मैं कर्तव्य बाध्य हूँ यह करने के लिए ।" कार्यम कर्म करोति य: ।
ऐसे, अगर कोई काम करता है, स सन्यासी, वह सन्यासी है । जीवन के चार चरण हैं वैदिक संस्कृति के अनुसार । हमने कई बार समझाया है कि ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ, और सन्यासी। ब्रह्मचारी मतलब छात्र जीवन, आध्यात्मिक समझ में प्रशिक्षित किए जाना । कृष्ण भावनामृत में, पूरी तरह से प्रशिक्षित होना । उसे ब्रह्मचारी कहा जाता है । फिर, पूर्ण प्रशिक्षण के बाद, वह पत्नी को स्वीकार करता है, वह शादी करता है, और परिवार और बच्चों के साथ रहता है । यही गृहस्थ कहा जाता है । फिर, पचास साल के बाद, वह बच्चों को छोड़ देता है और घर से बाहर चला जाता है अपनी पत्नी के साथ और पवित्र स्थानों की यात्रा करता है । यही वानप्रस्थ कहा जाता है, सेवानिवृत्त जीवन । और अंत में वह अपनी पत्नी को अपने बच्चों की, सयाना बच्चो की, देखभाल में छोड़ देता है, और वह अकेला रहता है । और यह सन्यास कहा जाता है । तो जीवन के अाश्रम हैं ।
अब, कृष्ण कहते हैं कि केवल त्यागना ही सब कुछ नहीं है । केवल त्यागना सब कुछ नहीं है । कुछ कर्तव्य होना चाहिए । कार्यम । कार्यम का मतलब "यह मेरा कर्तव्य है ।" अब क्या है वह कर्तव्य ? उसने परिवारिक जीवन का त्याग कर दिया है । उसे कोई परेशानी नहीं है कि कैसे अपनी पत्नी और बच्चों का पोषण करना है । फिर उसका कर्तव्य क्या है ? वह कर्तव्य बहुत जिम्मेदारी का कर्तव्य है - कृष्ण के लिए काम करना । कार्यम ।
कार्य का मतलब है यही वास्तविक कर्तव्य है । हमारे जीवन में कर्तव्य दो प्रकार के होते हैं । एक कर्तव्य है माया की सेवा, और दूसरा, एक और कर्तव्य सत्य की सेवा है । जब तुम सत्य की सेवा करते हो वह असली सन्यास कहा जाता है । अौर जब माया की सेवा, वह माया कहा जाता है । अब, या तो सत्य की सेवा करो या माया की सेवा, मैं एसी स्थिति में हूँ कि मुझे सेवा तो करनी है । मेरी स्थिति मालिक बनने की नहीं है परन्तु नौकर बनने की है । यही मेरी असली स्थिति है ।