HI/Prabhupada 0876 - जब तुम आनंद के आध्यात्मिक महासागर पर आओगे, इसमें दिन प्रतिदिन वृद्धि होगी

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750519 - Lecture SB - Melbourne

प्रभुपाद: जैसे कैरव चंद्रिका की तरह, चाँद की तरह, पहले दिन यह केवल एक लकीर की तरह है फिर धीरे-धीरे बढ़ता है - अाकार और चांदनी बढ़ती है। इसलिए यह तुलना की जाती है। जितना अधिक तुम कृष्ण भावनाभावित होते हो, तुम्हारे जीवन की चमक बढ़ेगी । श्रेय: कैरव चंद्रिका वितरणम् विद्या वधु जीवनम तो फिर यह जीवन ज्ञान का भरपूर होगा । विद्या-वधू-जीवनम । अानन्दामबुधि-वर्धानम। और ज्ञान के जीवन में वृद्धि लाने का मतलब है आनंद । आनंद का मतलब है सुख । हम सुख चाहते हैं। तो तुम अधिक से अधिक सुखी जीवन पाअोगे । अानन्दामबुधि-वर्धाननम और प्रति-पदम पूर्णामृतस्वादनम : और जीवन के हर कदम पर, जैसे हम.... भौतिक जीवन में हमने केवल दुख, कठिनाइयों का अनुभव किया है, विपरीत । अानन्दामबुधि वर्ध..। अाम्बुधि का मतलब है सागर । तो इस सागर में वृद्धि नहीं होती है लेकिन जब तुम आनंद के आध्यात्मिक सागर पर अाते हो तो अान्द, परमानंद, लेकिन यह प्रतिदिन बढेगा । जैसे ये लड़के । वे यूरोप, अमेरिका से आ रहे हैं। वे भारतीय नहीं हैं। लेकिन क्यों वे कृष्ण भावनामृत आंदोलन से जुड़े हुए हैं अगर उनके दिव्य सुख में वृद्धि न हो रही हो तो ? वे मूर्ख और धूर्त नहीं हैं। वे शिक्षित हैं। क्यों उन्होंने इसे अपनाया है? अानन्दामबुधि-वर्धानम। यह उनके दिव्य आनंद को बढ़ रहा है। तो जो इस प्रक्रिया को अपनाता है, वह बढाएगा अपने अानन्दामबुधि-वर्धानम को । प्रति पदम पूर्णामृतस्वादनम : और वह स्वाद लेने में सक्षम होगा, जीवन का अर्थ क्या है, आनंद का अर्थ क्या है। परम विजयते श्री कृष्ण-संकीर्तनम: "हरे कृष्ण मंत्र के जप की जय हो।" तो यह प्रक्रिया है। हमारा कृष्ण भावनामृत आंदोलन जहां तक ​​संभव हो सके इस ज्ञान को फैल रहा है और कृष्ण की कृपा से हमारे पास मेलबोर्न में यह मंदिर है और यह हमारे शिष्य श्रीमान मधुद्विष स्वामी को यह श्रेय जाता है । और तुम इसका लाभ लो। यही मेरा अनुरोध है। अगर तुम कुछ अौर नहीं करते हो, केवल अाअो और कीर्तन में शामिल हो जाअो, तुम धीरे-धीरे बहुत जल्द पता चल जाएगा। अत: श्री कृष्ण नामादि न भवेद ग्रह्यम इन्द्रियै: ( चै च मध्य १७।१३६) श्री कृष्ण, उनका नाम, उनका रूप, उनकी गतिविधियॉ, उनके गुण, हम नहीं समझ सकते हैं इन कुंद भौतिक इंद्रियों से । यह संभव नहीं है। अत: श्री कृष्ण नामादि न भवेद ग्रह्यम इन्द्रियै: "तो फिर? हमारे पास केवल एकमात्र साधन है इन्द्रियॉ । कैसे हम समझेंगे ? सेवनमुखे हि जिह्वादौ । अगर तुम भगवान की सेवा में अपनी इन्द्रियों को संलग्न करते हो स्वयम एव स्फुरति अद:, तब श्री कृष्ण तुम्हे बोध कराऍगे कि "मैं यहाँ हूँ।" यह प्रक्रिया है। अब यह शब्द बहुत महत्वपूर्ण है सेवनमुखे हि जिह्वादौ जिह्वा का मतलब है जीभ । अगर केवल तुम भगवान की सेवा में अपनी जीभ को संलग्न करते हो, तो तुम्हारा धीरे-धीरे विकास होगा। तो कैसे जीभ को संलग्न करें ? यह नहीं कहा गया है कि "अगर तुम देखो, या तुम छुअो, या तुम सूंगो ।" नहीं । "अगर तुम स्वार लो ।" तो जीभ का काम क्या है? जीभ का काम है - कि हम अच्छे भोजन का स्वाद लेते हैं और हम बोल सकते हैं। ये दो काम करो । अपनी जीभ से हरे कृष्ण कहो, और जितना संभव हो प्रसादम लो । (हंसी) और तुम एक भक्त हो जाते हो । बहुत बहुत धन्यवाद ।

भक्त: जय श्रील प्रभुपाद।