HI/Prabhupada 0912 - जो बुद्धिमत्ता में उन्नत हैं, वो भगवान को भीतर और बाहर देख सकते हैं: Difference between revisions

 
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तो, समो अहम् सर्व भूतेषु (भ गी ९।२९) । वे हर किसी के प्रति समान हैं । अब यह तुम पर निर्भर हैं कि अपनी क्षमता के अनुसार उन्हे समझो । तो कुंती भी इस श्लोक में वही बात कहती हैं : समम् चरन्तम् सर्वत्र (श्री भ १।८।२८) समम् चरन्तम । चरन्तम मतलब चलता हुअा । वे हर जगह घूम रहे हैं, बाहर, अंदर, केवल हमें उन्हे देखने के लिए अपनी आँखों को शुद्ध करना है । यही भक्ति सेवा है, अपनी इंद्रियों को शुद्ध करना भगवान की उपस्थिति का अनुभव करने के लिए । भगवान हर जगह मौजूद हैं । अंतर बहि: । अंत: मतलब भीतर और बहि: मतलब बाहर । "जो कम बुद्धिमान होते हैं जो, वे केवल भगवान को भीतर ढूँढते हैं, और जो बुद्धि में उन्नत हैं, वे भीतर और बाहर अपको देख सकते हैं । " यही अंतर है । ध्यान कम बुद्धिमान पुरुषों के वर्ग के लिए है । ध्यान मतलब तुम्हे इन्द्रियों को नियंत्रित करना है । योग अभ्यास का अर्थ है योग इन्द्रिय-संयम । हमारी इंद्रियॉ बहुत बेचैन हैं । लेकिन योगाभ्यास से, द्वारा, मेरे कहने का मतलब है, विभिन्न आसन का अभ्यास करने से, मन नियंत्रित होता है, इन्द्रियॉ नियंत्रित होती हैं । तो फिर हम विष्णु के रूप पर अपने ह्दय से ध्यान करते हैं । यही योग प्रणाली है । या जो जीवन की शारीरिक अवधारणा में बहुत ज्यादा हैं, उनके लिए योग प्रणाली की सिफारिश की गई है, शारीरिक व्यायाम का अभ्यास । और ह्दय में भगवान की खोज करने के लिए । लेकिन भक्त, जो भक्तों हैं, जो अौर अधिक उन्नत हैं, उन्हे अलग से अपनी इंद्रियों को नियंत्रित करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि भक्ति सेवा में लगना ही इंद्रियों को नियंत्रित करना है । मान लो तुम अर्च विग्रह की पूजा में लगे हुए हो, कमरे की सफाई में, भगवान के लिए भोग बनाने में, अर्च विग्रह के श्रंगार में, सब कुछ अच्छी तरह से ... तो तुम्हारी इन्द्रियॉ पहले से ही संलग्र हैं । कहाँ मौका है तुम्हारी इन्द्रियों को भटकने का ? इन्द्रियॉ पहले से ही नियंत्रित हैं । क्योंकि मेरी इन्द्रियॉ, ऋषीकेण ऋषिकेश सेवनम् भक्तिर उच्यते (चै च मध्य १९।१७०) भक्ति का अर्थ है केवल इंद्रियों को इन्द्रियों के मालिक की सेवा में संलग्न करना । ऋषीकेश मलतब इंद्रियों के मालिक औरऋषीक मतलब इंद्रियॉ । तो अब हमारी इन्द्रियॉ इन्द्रिय संतुष्टि में संलग्न हैं । सर्वोपाधि, उपाधि यक्त: । तो मैं यह शरीर हूँ । तो मुझे अपनी इन्द्रियों को संतुष्ट करना चाहिए । यह जीवन की दूषित अवस्था है । लेकिन जब हम इस समझ पर अाते हैं कि मैं यह शरीर नहीं हूं, मैं अात्मा हूँ, भगवान का अंशस्वरूप, तो मेरी आध्यात्मिक इन्द्रियॉ, संलग्न होना चाहिए भगवान की सेवा में । यह अावश्यक है । यही मुक्ति है । मुक्ति का अर्थ है: हित्ा अन्यथा रूपम । जब हम बद्ध होत हैं, हम अपनी मूल स्वाभाविक स्थिति को छोड़ देते हैं । हमारी मूल स्वभाविक स्थिति है, जैसे कि चैतन्य महाप्रभु कहते हैं : जीवेर स्वरूप हय नित्य कृ्ष्ण दास ( चै च मध्य २०।१०८ -१०९) हमारी मूल स्वभाविक स्थिति है कि हम श्री कृष्ण के शाश्वत दास हैं । तो जैसे ही हम प्रभु की सेवा में अपने अाप को संलग्न करते हैं, तुरंत हम मुक्त हो जाते हैं । तुरंत । किसी प्रक्रिया के माध्यम से गुजरने का कोई सवाल ही नहीं है । यही प्रक्रिया, अपने आप को संलग्न करना, अपनी इन्द्रियों को प्रभु की सेवा में संलग्न करना, मतलब वह मुक्त है ।  
तो, समो अहम सर्व भूतेषु ([[Vanisource: BG 9.29 (1972) |.गी. ९.२९]]) । वे हर किसी के प्रति समान हैं । अब यह तुम पर निर्भर हैं कि अपनी क्षमता के अनुसार उन्हे समझो । तो कुंती भी इस श्लोक में वही बात कहती हैं: समम चरन्तम सर्वत्र ([[Vanisource: SB 1.8.28 |श्रीमद भागवतम १.८.२८]]) | समम चरन्तम । चरन्तम मतलब चलता हुअा । वे हर जगह घूम रहे हैं, बाहर, अंदर, केवल हमें उन्हे देखने के लिए अपनी आँखों को शुद्ध करना है ।  
 
यही भक्ति सेवा है, भगवान की उपस्थिति का अनुभव करने के लिए अपनी इंद्रियों को शुद्ध करना । भगवान हर जगह मौजूद हैं । अंतर बहि: । अंत: मतलब भीतर और बहि: मतलब बाहर । "जो कम बुद्धिमान होते हैं जो, वे केवल भगवान को भीतर ढूँढते हैं, और जो बुद्धि में उन्नत हैं, वे भीतर और बाहर आपको देख सकते हैं । " यही अंतर है ।  
 
ध्यान कम बुद्धिमान पुरुषों के वर्ग के लिए है । ध्यान मतलब तुम्हे इन्द्रियों को नियंत्रित करना है । योग अभ्यास का अर्थ है योग इन्द्रिय-संयम । हमारी इंद्रियॉ बहुत बेचैन हैं । लेकिन योगाभ्यास से, मेरे कहने का मतलब है, विभिन्न आसन का अभ्यास करने से, मन नियंत्रित होता है, इन्द्रियॉ नियंत्रित होती हैं । तो फिर हम विष्णु के रूप पर अपने हृदय से ध्यान करते हैं । यही योग प्रणाली है । या जो जीवन की शारीरिक अवधारणा में बहुत ज्यादा हैं, उनके लिए योग प्रणाली की सिफारिश की गई है, शारीरिक व्यायाम का अभ्यास । और हृदय में भगवान की खोज करने के लिए । लेकिन भक्त, जो भक्त हैं, जो अौर अधिक उन्नत हैं, उन्हे अलग से अपनी इंद्रियों को नियंत्रित करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि भक्ति सेवा में लगना ही इंद्रियों को नियंत्रित करना है ।  
 
मान लो तुम अर्च विग्रह की पूजा में लगे हुए हो, कमरे की सफाई में, भगवान के लिए भोग बनाने में, अर्च विग्रह के श्रृंगार में, सब कुछ अच्छी तरह से... तो तुम्हारी इन्द्रियॉ पहले से ही संलग्र हैं । कहाँ मौका है तुम्हारी इन्द्रियों को भटकने का ? इन्द्रियॉ पहले से ही नियंत्रित हैं । क्योंकि मेरी इन्द्रियॉ, ऋषीकेण ऋषिकेश सेवनम भक्तिर उच्यते ([[Vanisource: CC Madhya 19.170|चैतन्य चरितामृत मध्य १९.१७०]]) |
 
भक्ति का अर्थ है केवल इंद्रियों को इन्द्रियों के मालिक की सेवा में संलग्न करना । ऋषीकेश मलतब इंद्रियों के मालिक और ऋषीक मतलब इंद्रियॉ । तो अभी हमारी इन्द्रियॉ इन्द्रिय संतुष्टि में संलग्न हैं । सर्वोपाधि, उपाधि युक्त: । तो मैं यह शरीर हूँ । तो मुझे अपनी इन्द्रियों को संतुष्ट करना चाहिए । यह जीवन की दूषित अवस्था है । लेकिन जब हम इस समझ पर अाते हैं कि मैं यह शरीर नहीं हूं, मैं अात्मा हूँ, भगवान का अंशस्वरूप, तो मेरी आध्यात्मिक इन्द्रियॉ, संलग्न होना चाहिए भगवान की सेवा में । यह अावश्यक है । यही मुक्ति है । मुक्ति का अर्थ है: हित्वा अन्यथा रूपम ।  
 
जब हम बद्ध होत हैं, हम अपनी मूल स्वाभाविक स्थिति को छोड़ देते हैं । हमारी मूल स्वभाविक स्थिति है, जैसे कि चैतन्य महाप्रभु कहते हैं: जीवेर स्वरूप हय नित्य कृष्ण दास ([[Vanisource: CC Madhya 20.108-109 |चैतन्य चरितामृत मध्य २०.१०८ -१०९]]) हमारी मूल स्वभाविक स्थिति है कि हम श्री कृष्ण के शाश्वत दास हैं । तो जैसे ही हम प्रभु की सेवा में अपने अाप को संलग्न करते हैं, तुरंत हम मुक्त हो जाते हैं । तुरंत । किसी प्रक्रिया के माध्यम से गुजरने का कोई सवाल ही नहीं है । यही प्रक्रिया, अपने आप को संलग्न करना, अपनी इन्द्रियों को प्रभु की सेवा में संलग्न करना, मतलब वह मुक्त है ।  
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Latest revision as of 17:51, 1 October 2020



730420 - Lecture SB 01.08.28 - Los Angeles

तो, समो अहम सर्व भूतेषु (भ.गी. ९.२९) । वे हर किसी के प्रति समान हैं । अब यह तुम पर निर्भर हैं कि अपनी क्षमता के अनुसार उन्हे समझो । तो कुंती भी इस श्लोक में वही बात कहती हैं: समम चरन्तम सर्वत्र (श्रीमद भागवतम १.८.२८) | समम चरन्तम । चरन्तम मतलब चलता हुअा । वे हर जगह घूम रहे हैं, बाहर, अंदर, केवल हमें उन्हे देखने के लिए अपनी आँखों को शुद्ध करना है ।

यही भक्ति सेवा है, भगवान की उपस्थिति का अनुभव करने के लिए अपनी इंद्रियों को शुद्ध करना । भगवान हर जगह मौजूद हैं । अंतर बहि: । अंत: मतलब भीतर और बहि: मतलब बाहर । "जो कम बुद्धिमान होते हैं जो, वे केवल भगवान को भीतर ढूँढते हैं, और जो बुद्धि में उन्नत हैं, वे भीतर और बाहर आपको देख सकते हैं । " यही अंतर है ।

ध्यान कम बुद्धिमान पुरुषों के वर्ग के लिए है । ध्यान मतलब तुम्हे इन्द्रियों को नियंत्रित करना है । योग अभ्यास का अर्थ है योग इन्द्रिय-संयम । हमारी इंद्रियॉ बहुत बेचैन हैं । लेकिन योगाभ्यास से, मेरे कहने का मतलब है, विभिन्न आसन का अभ्यास करने से, मन नियंत्रित होता है, इन्द्रियॉ नियंत्रित होती हैं । तो फिर हम विष्णु के रूप पर अपने हृदय से ध्यान करते हैं । यही योग प्रणाली है । या जो जीवन की शारीरिक अवधारणा में बहुत ज्यादा हैं, उनके लिए योग प्रणाली की सिफारिश की गई है, शारीरिक व्यायाम का अभ्यास । और हृदय में भगवान की खोज करने के लिए । लेकिन भक्त, जो भक्त हैं, जो अौर अधिक उन्नत हैं, उन्हे अलग से अपनी इंद्रियों को नियंत्रित करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि भक्ति सेवा में लगना ही इंद्रियों को नियंत्रित करना है ।

मान लो तुम अर्च विग्रह की पूजा में लगे हुए हो, कमरे की सफाई में, भगवान के लिए भोग बनाने में, अर्च विग्रह के श्रृंगार में, सब कुछ अच्छी तरह से... तो तुम्हारी इन्द्रियॉ पहले से ही संलग्र हैं । कहाँ मौका है तुम्हारी इन्द्रियों को भटकने का ? इन्द्रियॉ पहले से ही नियंत्रित हैं । क्योंकि मेरी इन्द्रियॉ, ऋषीकेण ऋषिकेश सेवनम भक्तिर उच्यते (चैतन्य चरितामृत मध्य १९.१७०) |

भक्ति का अर्थ है केवल इंद्रियों को इन्द्रियों के मालिक की सेवा में संलग्न करना । ऋषीकेश मलतब इंद्रियों के मालिक और ऋषीक मतलब इंद्रियॉ । तो अभी हमारी इन्द्रियॉ इन्द्रिय संतुष्टि में संलग्न हैं । सर्वोपाधि, उपाधि युक्त: । तो मैं यह शरीर हूँ । तो मुझे अपनी इन्द्रियों को संतुष्ट करना चाहिए । यह जीवन की दूषित अवस्था है । लेकिन जब हम इस समझ पर अाते हैं कि मैं यह शरीर नहीं हूं, मैं अात्मा हूँ, भगवान का अंशस्वरूप, तो मेरी आध्यात्मिक इन्द्रियॉ, संलग्न होना चाहिए भगवान की सेवा में । यह अावश्यक है । यही मुक्ति है । मुक्ति का अर्थ है: हित्वा अन्यथा रूपम ।

जब हम बद्ध होत हैं, हम अपनी मूल स्वाभाविक स्थिति को छोड़ देते हैं । हमारी मूल स्वभाविक स्थिति है, जैसे कि चैतन्य महाप्रभु कहते हैं: जीवेर स्वरूप हय नित्य कृष्ण दास (चैतन्य चरितामृत मध्य २०.१०८ -१०९) हमारी मूल स्वभाविक स्थिति है कि हम श्री कृष्ण के शाश्वत दास हैं । तो जैसे ही हम प्रभु की सेवा में अपने अाप को संलग्न करते हैं, तुरंत हम मुक्त हो जाते हैं । तुरंत । किसी प्रक्रिया के माध्यम से गुजरने का कोई सवाल ही नहीं है । यही प्रक्रिया, अपने आप को संलग्न करना, अपनी इन्द्रियों को प्रभु की सेवा में संलग्न करना, मतलब वह मुक्त है ।