HI/Prabhupada 1065 - व्यक्ति को सर्वप्रथम यह जान लेना चाहिए कि वो यह शरीर नहीं है

Revision as of 20:58, 4 April 2015 by Kanupriya (talk | contribs) (Created page with "<!-- BEGIN CATEGORY LIST --> Category:1080 Yoruba Pages with Videos Category:Prabhupada 1065 - in all Languages Category:HI-Quotes - 1966 Category:HI-Quotes - Le...")
(diff) ← Older revision | Latest revision (diff) | Newer revision → (diff)


Invalid source, must be from amazon or causelessmery.com

660219-20 - Lecture BG Introduction - New York

हमें सर्वप्रथम यह जान लेना चाहिए कि हम यह शरीर नहीं है जब हम भौतिक दृष्टि से कुलषित होते हैं, हम बद्ध कहलाते हैं । बद्ध जीवन । और मिथ्या चेतना, ... मिथ्या चेतना का प्राकट्य होता है यह मान लेने से " मैं प्रकृति का प्रतिफल हूं ।" यह मिथ्या अहंकार कहलाता है । सारा भौतिक कार्यकलाप, यस्यात्म बुद्धि: कुणपे त्रि धातुके (श्री भ १०।८४।१३) । यस्यात्म बुद्धि: कुणपे त्रि धातुके, जो व्यक्ति देहात्मबुद्धि में लीन रहता है, अब पूरे भगवद्- गीता का प्रवचन भगवान नें उल्लेख किया क्योंकि अर्जन नें अपने अाप को देहात्मबुद्धि की अवस्था में उपस्थित किया था। तो मनुष्य को देहात्मबुद्धि से मुक्त होना है । अध्यात्मवादी के लिए प्रारम्भिक कर्तव्य यही है जो स्वछन्द रहना चाहता है, मुक्त होना चाहता है । उसे सर्वप्रथम यह जान लेना चाहिए कि वह शरीर नहीं है । यह चेतना, या भौतिक चेतना.....जब हम इस भौतिक चेतना से मुक्त हो जाते हैं, यही मुक्ति कहलाता है । मुक्ति या मोक्ष का अर्थ है भौतिक चेतना से मुक्त होना । श्रीमद-भागवतम में भी मुक्ति की परिभाषा दी गई है : मुक्तिर्हित्वान्यथारूपं स्वरूपेण व्यवस्थिति: (श्री भ २।१०।६) । स्वरूपेण व्यवस्थिति: । मुक्ति का अर्थ है इस भौतिक जगत की कलुषित चेतना से मुक्त होना, और शुद्ध चेतना में स्थित होना । और भगवद्- गीता के सारे उपदेशों का मन्तव्य इसी शुद्ध चेतना को जगृत करना है । हम भगवद्- गीता के निर्देश के अंतिम चरण में पाते हैं श्री कृष्ण अर्जुन से यह प्रश्न करते हैं कि वह विशुद्ध चेतना को प्राप्त हुअा कि नहीं ? कि वह विशुद्ध चेतना को प्राप्त हुअा कि नहीं । शुद्ध चेतना का अर्थ है भगवान के अादेशानुसार कर्म करना । यही विशुद्ध चेतना है । विशुद्ध चेतना का यही सार है। चेतना तो है, लेकिन क्योंकि हम अंश हैं, हम प्रभावित हो जाते हैं । भौतिक गुणों द्वारा प्रभावित होने की प्रवृत्ति होती है । किन्तु भगवान परमेश्वर होने के कारण कभी प्रभावित नहीं होते हैं । वे कभी प्रभावित नहीं होते हैं । यही अन्तर है भगवान में अौर ...... अब यह चेतना है......यह चेतना क्या है ? यह चेतना है "मैं हूँ।" तो फिर " मैं हूँ" क्या है ? कलुषित चेतना में "मैं हूँ" का अर्थ है कि "मैं सर्वेसर्वा हूं ।" यह अशुद्ध चेतना है । और "मैं भोक्ता हूँ ।" सारा भौतिक संसार चलायमान है क्योंकि प्रत्येक जीव यही सोचता है कि "मैं इस जगत का स्वामी हूं अौर स्रष्टा हूं ।" भौतिक चेतना के दो मनोमय विभाग हैं । एक के अनुसार "मैं ही स्रष्टा हूं," अौर दूसरे के अनुसार "मैं ही भोक्ता हूं ।" तो भगवान ही वास्तव में स्रष्टा हैं अौर वे ही वास्तव में भोक्ता हैं । और जीव भगवान का अंश होने के कारण वह वास्तव में न तो स्रष्टा है न तो भोक्ता, लेकिन वह सहयोगी है । उदाहरणार्थ, पूरी मशीन । मशीन का कोई एक अंग सहयोगी है, सहयोगी है । या अगर हम हमारे शरीर के बनावट का अध्ययन करते हैं । अब, शरीर में हाथ हैं, पैर हैं, आंखें हैं, और ये सभी उपकरण, काम कर रहे हैं, लेकिन शरीर के ये सभी अंग, वे भोक्ता नहीं हैं । भोक्ता तो उदर है । पैर चलते हैं यहॉ से वहॉ । हाथ एकत्रित कर रहा है, हाथ भोजन बना रहा है, और दांत चबा रहे हैं, और सब कुछ, शरीर के सभी भाग, उदर को संतुष्ट करने में लगे हुए हैं क्योंकि उदर ही प्रधान कारक है जो शरीर रूपी संघठन को पोषण करता है । और सारी वस्तुऍ उदर को दी जानी चाहिए । प्राणपहाराच च यथेन्द्रियाणाम ( श्री भ ४।३१।१४) । उदाहरणार्थ तुम हरे रंग का पेड़ देख सकते हो जड़ में पानी डालकर । या फिर तुम स्वस्थ हो सकते हो ... शरीर के अंग -हाथ, पैर, आंख, कान, उंगली- सब कुछ स्वस्थ अवस्था में रहता है जब शरीर के अंग उदर के साथ सहयोग करते हैं । इसी तरह, परमेश्वर ही भोक्ता हैं । वे ही भोक्ता हैं, अौर वे ही स्रष्टा हैं । और हम, मेरे कहने का मतलब है, अधीनस्थ जीव, उनकी शक्ति के उतपादन, हम निमित्त सहयोग करने के लिए हैं । यह सहयोग हमें लाभ देगा । उदाहरणार्थ, अच्छा भोजन जो उंगलियॉ खाती हैं । अगर उंगलियॉ सोचें कि "क्यों हम यह उदर को दें ? हम भोग करेंगे ।" तो यह एक गलती है । उंगलियआ आनंद लेने में असमर्थ होंगी । अगर उंगलियॉ लाभ चाहती है भोजन का, तो उन्हे उदर में डालना होगा ।