HI/Prabhupada 1078 - मन तथा बुद्धि को चौबीस घंटे भगवान के विचार में लीन करना: Difference between revisions

(Created page with "<!-- BEGIN CATEGORY LIST --> Category:1080 Yoruba Pages with Videos Category:Prabhupada 1078 - in all Languages Category:HI-Quotes - 1966 Category:HI-Quotes - Le...")
 
m (Text replacement - "(<!-- (BEGIN|END) NAVIGATION (.*?) -->\s*){2,15}" to "<!-- $2 NAVIGATION $3 -->")
 
Line 1: Line 1:
<!-- BEGIN CATEGORY LIST -->
<!-- BEGIN CATEGORY LIST -->
[[Category:1080 Yoruba Pages with Videos]]
[[Category:1080 Hindi Pages with Videos]]
[[Category:Prabhupada 1078 - in all Languages]]
[[Category:Prabhupada 1078 - in all Languages]]
[[Category:HI-Quotes - 1966]]
[[Category:HI-Quotes - 1966]]
Line 10: Line 10:
[[Category:Hindi Language]]
[[Category:Hindi Language]]
<!-- END CATEGORY LIST -->
<!-- END CATEGORY LIST -->
<!-- BEGIN NAVIGATION BAR -- DO NOT EDIT OR REMOVE -->
{{1080 videos navigation - All Languages|Hindi|HI/Prabhupada 1077 - भगवान पूर्ण हैं, उनके नाम और उनमे कोई अंतर नहीं है|1077|HI/Prabhupada 1079 - भगवद गीता एक दिव्य साहित्य है जिसको हमें ध्यानपूर्वक पढ़ना चाहिए|1079}}
<!-- END NAVIGATION BAR -->
<!-- BEGIN ORIGINAL VANIQUOTES PAGE LINK-->
<!-- BEGIN ORIGINAL VANIQUOTES PAGE LINK-->
<div class="center">
<div class="center">
Line 18: Line 21:


<!-- BEGIN VIDEO LINK -->
<!-- BEGIN VIDEO LINK -->
{{youtube_right|V4RzPKgzWmk|Absorbed Both By The Mind and Intelligence Twenty-four Hours Thinking of the Lord - Prabhupāda 1078}}
{{youtube_right|yttIXL6-_Lo|मन तथा बुद्धि को चौबीस घंटे भगवान के विचार में लीन करना<br/>- Prabhupāda 1078}}
<!-- END VIDEO LINK -->
<!-- END VIDEO LINK -->


<!-- BEGIN AUDIO LINK -->
<!-- BEGIN AUDIO LINK -->
<mp3player>File:660220BG-NEW_YORK_clip22.mp3</mp3player>
<mp3player>https://s3.amazonaws.com/vanipedia/clip/660220BG-NEW_YORK_clip22.mp3</mp3player>
<!-- END AUDIO LINK -->
<!-- END AUDIO LINK -->


Line 29: Line 32:
<!-- END VANISOURCE LINK -->
<!-- END VANISOURCE LINK -->


<!-- BEGIN TRANSLATED TEXT -->
<!-- BEGIN TRANSLATED TEXT -->-
मन तथा बुद्धि को चौबीस घंटे भगवान के विचार में लीन करना यदि हममे परमेश्वर के लिए प्रगाढ़ प्रेम हो, तो हम अपना कर्म करते हुए उनका स्मरण भी कर सकते हैं । तो हमें प्रेमभाव उत्पन्न करना होगा । उदाहरणार्थ, अर्जुन सदैव कृष्ण का चिन्तन करता था । चौबीस घंटे में एक क्षण के लिए भी वह श्री कृष्ण को नहीं भूल सकता था । कृष्ण का नित्य संगी । साथ ही साथ, एक योद्धा । भगवान कृष्ण नें उसे युद्ध छोडकर जाने की सलाह नहीं दी, जंगल जाकर, हिमालय जाकर और ध्यान करने की । जब योग पद्धति अर्जुन को बताई गई, अर्जुन से इनकार कर दिया, कि "इस पद्धति का अभ्यास करना मेरे लिए संभव नहीं है ।" तब भगवान ने कहा, योगिनाम् अपि सर्वेषां मद गतेनांतरात्मना ( भ गी ६।४७) । मद गतेनांतरात्मना श्रद्धावान भजते यो मां स मे युक्तामो मत: । अतएव जो सदैव परमेश्वर का चिन्तन करता है, वह सबसे बडा योगी है, वह सर्वोच्च ज्ञानी है, और वह महानतम भक्त है एक ही समय में । भगवान सलाह देते हैं कि तस्मात सर्वषु कालेषु माम् अनुस्मर युध्य च ( भ गी ८।७) । "एक क्षत्रिय होने के नाते तुम युद्ध करना नहीं छोड सकते । तुम्हे युद्ध करना ही होगा । तो अगर तुम उसी समय अभ्यास करो मेरे चिन्तन करने का, तो यह संभव है," अंत काले च मां एव स्मरण ( भ गी ८।५) , "तो मृत्यु के समय मुझे याद करना संभव होगा ।" मयि अर्पित मनो बुद्धिर् माम् एवैष्यसि असंशय: । फिर से वे कहते हैं कि इसमें कोई संदेह नहीं है । अगर मनुष्य भगवान की दिव्य प्रेमाभक्ति सेवा में पूर्णतया समर्पित है, भगवान की दिव्य प्रेमाभक्ति सेवा में, मयि अर्पित मनो बुद्धिर् ( भ गी ८।७) । हम वास्तव में अपने शरीर से कर्म नहीं करते हैं । हम अपने मन अौर बुद्धि से कर्म करते हैं । तो यदि मन अौर बद्धि सदैव परमेश्वर के विचार में मग्न रहे, तो स्वाभाविक रूप से हमारी इन्द्रियॉ भी भगवान की सेवा में लगी रहेंगी । यही भगवद्- गीता का राज़ है । हमें यह कला सीखनी चाहिए, कि कैसे हम लीन रह सकते हैं, दोनों मन और बुद्धि के द्वारा, चौबीस घंटे भगवान के विचारों में । एसी तल्लीनता से मनुष्य भगवद्धाम को जाता है या अाध्यात्मिक जगत में यह भौतिक शरीर छोड़ने के बाद । आधुनिक वैज्ञानिक, वे कई सालों से कोशिश कर रहे हैं, चंद्रमा ग्रह तक पहुँचने की, और उन्हे कोई रास्ता नहीं दिख रहा है । लेकिन यहाँ भगवद्- गीता में, यहाँ एक सुझाव है । यदि एक मनुष्य पचास साल जीता है और वह ... कोई भी उन पचास सालों में अपने अाध्यात्मिक उत्थान के लिए प्रयास नहीं करता है । यह एक बहुत अच्छा विचार है । लेकिन अगर कोई दस साल या पांच साल के लिए भी ईमानदारी से यह अभ्यास करने की कोशिश करता है, मयि अर्पित मनो बुद्धिर ( भ गी ८।७) ... यह केवल अभ्यास का सवाल है । और यह अभ्यास भक्तियोग प्रक्रिया से बहुत आसानी से संभव हो सकता है, श्रवणं श्रवणं । सबसे आसान प्रक्रिया है सुनना । श्रवणं कीर्तनं विष्णो: स्मरणं पादसेवनम् अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् (श्री भ ७।५।२३) । ये नौ विधियॉ । तो सबसे आसान प्रक्रिया है केवल सुनना ।  
यदि हममे परमेश्वर के लिए प्रगाढ़ प्रेम हो, तो हम अपना कर्म करते हुए उनका स्मरण भी कर सकते हैं । तो हमें प्रेमभाव उत्पन्न करना होगा । उदाहरणार्थ, अर्जुन सदैव कृष्ण का चिन्तन करता था । चौबीस घंटे में एक क्षण के लिए भी वह कृष्ण को नहीं भूल सकता था । कृष्ण का नित्य संगी । साथ ही साथ, एक योद्धा । भगवान कृष्ण ने उसे युद्ध छोड़कर जाने की सलाह नहीं दी, जंगल जाकर, हिमालय जाकर और ध्यान करने की ।  
 
जब योग पद्धति अर्जुन को बताई गई, अर्जुन ने इन्कार कर दिया, कि, "इस पद्धति का अभ्यास करना मेरे लिए संभव नहीं है ।" तब भगवान ने कहा, योगिनाम अपि सर्वेषाम मद गतेनांतरात्मना ([[HI/BG 6.47|.गी. ६.४७]]) । मद गतेनांतरात्मना श्रद्धावान भजते यो माम स मे युक्ततमो मत: । अतएव जो सदैव परमेश्वर का चिन्तन करता है, वह सबसे बड़ा योगी है, वह सर्वोच्च ज्ञानी है, और वह महानतम भक्त है एक ही समय में । भगवान सलाह देते हैं कि तस्मात सर्वषु कालेषु माम अनुस्मर युध्य च ([[HI/BG 8.7|भ गी ८।७]]) । "एक क्षत्रिय होने के नाते तुम युद्ध करना नहीं छोड़ सकते । तुम्हें युद्ध करना ही होगा ।  
 
तो अगर तुम उसी समय अभ्यास करो मेरे चिन्तन करने का, तो यह संभव है," अंत काले च माम एव स्मरण ([[HI/BG 8.5|.गी. ८.५]]), "तो मृत्यु के समय मुझे याद करना संभव होगा ।" मयि अर्पित मनो बुद्धिर माम एवैष्यसि असंशय: । फिर से वे कहते हैं कि इसमें कोई संदेह नहीं है । अगर मनुष्य भगवान की दिव्य प्रेमाभक्ति सेवा में पूर्णतया समर्पित है, भगवान की दिव्य प्रेमाभक्ति सेवा में, मयि अर्पित मनो बुद्धिर ([[HI/BG 8.7|भ गी ८।७]]) । हम वास्तव में अपने शरीर से कर्म नहीं करते हैं । हम अपने मन अौर बुद्धि से कर्म करते हैं ।  
 
तो यदि मन अौर बद्धि सदैव परमेश्वर के विचार में मग्न रहे, तो स्वाभाविक रूप से हमारी इन्द्रियाँ भी भगवान की सेवा में लगी रहेंगी । यही भगवद गीता का राज़ है । हमें यह कला सीखनी चाहिए कि कैसे हम लीन रह सकते हैं, दोनों मन और बुद्धि के द्वारा, चौबीस घंटे भगवान के विचारों में । एेसी तल्लीनता से मनुष्य भगवद्धाम जाता है या अाध्यात्मिक जगत में यह भौतिक शरीर छोड़ने के बाद ।  
 
आधुनिक वैज्ञानिक, वे कई सालों से कोशिश कर रहे हैं, चंद्र ग्रह तक पहुँचने की, और उन्हें कोई रास्ता नहीं दिख रहा है । लेकिन यहाँ भगवद गीता में, यहाँ एक सुझाव है । यदि एक मनुष्य पचास साल जीता है और वह... कोई भी उन पचास सालों में अपने अाध्यात्मिक उत्थान के लिए प्रयास नहीं करता है । यह एक बहुत अच्छा विचार है । लेकिन अगर कोई दस साल या पाँच साल के लिए भी ईमानदारी से यह अभ्यास करने की कोशिश करता है, मयि अर्पित मनो बुद्धिर ([[HI/BG 8.7|.गी. ८.७]])... यह केवल अभ्यास का सवाल है । और यह अभ्यास भक्तियोग प्रक्रिया से बहुत आसानी से संभव हो सकता है, श्रवणम श्रवणम । सबसे आसान प्रक्रिया है सुनना । श्र
 
:वणम कीर्तनमम विष्णो:  
:स्मरणम पादसेवनम
:अर्चनम वन्दनम दास्यम
:सख्यम आत्मनिवेदनम
:([[Vanisource:SB 7.5.23-24|श्रीमद भागवतम ७.५.२३]]) ।  
 
ये नौ विधियाँ । तो सबसे आसान प्रक्रिया है केवल सुनना ।  
<!-- END TRANSLATED TEXT -->
<!-- END TRANSLATED TEXT -->

Latest revision as of 17:44, 1 October 2020



660219-20 - Lecture BG Introduction - New York

- यदि हममे परमेश्वर के लिए प्रगाढ़ प्रेम हो, तो हम अपना कर्म करते हुए उनका स्मरण भी कर सकते हैं । तो हमें प्रेमभाव उत्पन्न करना होगा । उदाहरणार्थ, अर्जुन सदैव कृष्ण का चिन्तन करता था । चौबीस घंटे में एक क्षण के लिए भी वह कृष्ण को नहीं भूल सकता था । कृष्ण का नित्य संगी । साथ ही साथ, एक योद्धा । भगवान कृष्ण ने उसे युद्ध छोड़कर जाने की सलाह नहीं दी, जंगल जाकर, हिमालय जाकर और ध्यान करने की ।

जब योग पद्धति अर्जुन को बताई गई, अर्जुन ने इन्कार कर दिया, कि, "इस पद्धति का अभ्यास करना मेरे लिए संभव नहीं है ।" तब भगवान ने कहा, योगिनाम अपि सर्वेषाम मद गतेनांतरात्मना (भ.गी. ६.४७) । मद गतेनांतरात्मना श्रद्धावान भजते यो माम स मे युक्ततमो मत: । अतएव जो सदैव परमेश्वर का चिन्तन करता है, वह सबसे बड़ा योगी है, वह सर्वोच्च ज्ञानी है, और वह महानतम भक्त है एक ही समय में । भगवान सलाह देते हैं कि तस्मात सर्वषु कालेषु माम अनुस्मर युध्य च (भ गी ८।७) । "एक क्षत्रिय होने के नाते तुम युद्ध करना नहीं छोड़ सकते । तुम्हें युद्ध करना ही होगा ।

तो अगर तुम उसी समय अभ्यास करो मेरे चिन्तन करने का, तो यह संभव है," अंत काले च माम एव स्मरण (भ.गी. ८.५), "तो मृत्यु के समय मुझे याद करना संभव होगा ।" मयि अर्पित मनो बुद्धिर माम एवैष्यसि असंशय: । फिर से वे कहते हैं कि इसमें कोई संदेह नहीं है । अगर मनुष्य भगवान की दिव्य प्रेमाभक्ति सेवा में पूर्णतया समर्पित है, भगवान की दिव्य प्रेमाभक्ति सेवा में, मयि अर्पित मनो बुद्धिर (भ गी ८।७) । हम वास्तव में अपने शरीर से कर्म नहीं करते हैं । हम अपने मन अौर बुद्धि से कर्म करते हैं ।

तो यदि मन अौर बद्धि सदैव परमेश्वर के विचार में मग्न रहे, तो स्वाभाविक रूप से हमारी इन्द्रियाँ भी भगवान की सेवा में लगी रहेंगी । यही भगवद गीता का राज़ है । हमें यह कला सीखनी चाहिए कि कैसे हम लीन रह सकते हैं, दोनों मन और बुद्धि के द्वारा, चौबीस घंटे भगवान के विचारों में । एेसी तल्लीनता से मनुष्य भगवद्धाम जाता है या अाध्यात्मिक जगत में यह भौतिक शरीर छोड़ने के बाद ।

आधुनिक वैज्ञानिक, वे कई सालों से कोशिश कर रहे हैं, चंद्र ग्रह तक पहुँचने की, और उन्हें कोई रास्ता नहीं दिख रहा है । लेकिन यहाँ भगवद गीता में, यहाँ एक सुझाव है । यदि एक मनुष्य पचास साल जीता है और वह... कोई भी उन पचास सालों में अपने अाध्यात्मिक उत्थान के लिए प्रयास नहीं करता है । यह एक बहुत अच्छा विचार है । लेकिन अगर कोई दस साल या पाँच साल के लिए भी ईमानदारी से यह अभ्यास करने की कोशिश करता है, मयि अर्पित मनो बुद्धिर (भ.गी. ८.७)... यह केवल अभ्यास का सवाल है । और यह अभ्यास भक्तियोग प्रक्रिया से बहुत आसानी से संभव हो सकता है, श्रवणम । श्रवणम । सबसे आसान प्रक्रिया है सुनना । श्र

वणम कीर्तनमम विष्णो:
स्मरणम पादसेवनम
अर्चनम वन्दनम दास्यम
सख्यम आत्मनिवेदनम
(श्रीमद भागवतम ७.५.२३) ।

ये नौ विधियाँ । तो सबसे आसान प्रक्रिया है केवल सुनना ।