HI/490314 - जगन्नाथ बाबू को लिखित पत्र, कलकत्ता

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कलकत्ता, 14 मार्च 1949

प्रिय जगन्नाथ बाबू,

कृपया मेरे सादर नमस्कार स्वीकार करें। आपके द्वारा अपने यहां आयोजित कल की पवित्र सभा का मुझे सदा बहुत आदर के साथ स्मरण रहेगा। साथ ही, मुझे परम भगवान की सेवा का अवसर देने के लिए, आपको मैं अपने ह्रदय के अन्तःकरण से धन्यवाद देता हूँ। मैं मानता हूँ कि आपने अपने पिछले जन्म में किये गए पुणंयों के फलस्वरूप कुछ दिव्य प्रतिभाओं को उत्तराधिकार में प्राप्त किया है और इसीलिए आपका जन्म श्रीमताम् परिवार में हुआ है, जैसा विवरण भगवद्गीता में है। भगवान ने चाहा तो आप अपने बाकी जीवनकाल में बहुत महान दिव्य सेवा करेंगे, जिससे न केवल आपके जन्म के परिवार को ख्याति प्राप्त होगी, बल्कि आपके समाज और देश को भी लाभ पंहुचेगा।

कल शाम जब हम आपके बरामदे में बात कर रहे थ, उस समय हमने भगवान चैतन्य के आविर्भाव दिवस के बारे में ज़िक्र किया था, जो आज के परम पवित्र डोल-यात्रा पूर्णिमा के दिन पड़ता है । और वास्तव में आज मैं अपने कुछ परिवार जनों के साथ श्री चैतन्य महाप्रभु के प्राकट्य की घड़ी, ठीक संध्या समय तक, उपवास रखे हुए हूँ। गुरु महाराज शास्त्रीजी ने कल ही सभासदों को आज के दिन उपवास करने का सुझाव दिया था और यह यथार्थ में गौर जयन्ती के दिन किया जा रहा है। मुझे आपसे यह जान कर बहुत प्रसन्नता हुई कि आप भगवान चैतन्य को भगवान के अवतार के रूप में जानते हैं। यह सत्य है और अनेक शास्त्रों, यथा महाभारत, भागवत, उपनिषद् और अन्य कई पुराणों में इसका प्रचुर प्रमाण उपलब्ध है। तो भगवान चैतन्य के आविर्भाव समारोह की इस 463वीं वर्षगांठ के अवसर पर, मैं अपने इस व्रत पालन की तुष्टि करने के लिए, उनका स्मरण कर रहा हूँ। आशा करता हूँ कि आप अपने समय के इस अतिक्रमण से बुरा न मानेंगे।

श्रीमद्भागवतम् में जब करभाजन मुनि, विविध युगों में भगवान के विविध अवतारों का वर्णन कर रहे हैं, तो वे कहते हैं कि “कलियुग में मेधावीजन, श्री कृष्ण के अवतार की दिव्य संकीर्तन की विधि द्वारा पूजा करेंगे। श्रीकृष्ण के यह अवतार, जो शरीर से श्याम वर्ण के नहीं होंगे, अपने अनेक अनुयायियों के साथ में कृष्ण के नामों का अविलम्ब कीर्तन करेंगे। और उनके ये अनुयायी कलियुग के पतित जीवों के उद्धार के लिए सैनिकों का कार्य करेंगे।”

श्री कृष्ण चैतन्य ने रामनुजाचार्य आदि अन्य वैष्णव आचार्यों की ही तरह प्रचार किया और उनका लक्ष्य था मुक्ति के उसी सिद्धान्त की स्थापना करना जो स्वयं श्रीकृष्ण ने भगवद्गीता में प्रतिपादित की थी। भगवद्गीता में भगवान बताते हैं कि उन्हें प्राप्त करने की विधि क्या है, उनके वास्तविक वैशिष्ट्य, महामाया व योगमाया नामक उनकी विविध शक्तियों के बारे में, उनके विराट रूप के बारे में, उनके द्वारा किया जाने वाला भौतिक सृष्टि का निर्माण, पालन व उपसंहार, आध्यात्मिक जगत का विवरण जिसका भौतिक जगत के नष्ट होने के समय भी विनाश नहीं होता, जीवात्माओं के बारे में, आत्मा के प्रवास की प्रक्रिया, महात्माओं का वर्णन, उनकी गतिविधियाँ, और अन्त में सभी के कर्तव्य, सत्य रज तम नामक प्रकृति के तीन गुणों का विवरण, विविध मानव जातियाँ, कर्म, ज्ञान, भक्ति, प्रकृति के इन गुणों के वशीभूत विविध प्रकार की पूजा कार्यकलाप। भगवद्गीता में आसुरिक प्रकृति और दैवी प्रकृति के बीच स्पष्ट अंतर किया गया है। भगवान राक्षसी अथवा आसुरिक प्रकृति की कड़ी भर्तस्ना करते हैं और दैवी प्रकृति की सराहना करते हैं।

जैसा कि चन्डी में बताया गया है, वे महामाया ही हैं, जो दुर्गा, काली, चन्डी, भद्रकाली, महालक्ष्मी इत्यादि नामों से प्रसिद्ध हैं और जो भगवान की बाह्य शक्ति मूर्तिमान हैं। और असुरों को अपने शक्तिशाली आयुधों के द्वारा भौतिक जगत की दसों दिशाओं में त्रास देने का यह यश-शून्य कार्य महामाया को ही दिया गया है। परम भगवान के निर्देशानुसार इस जगत का केवल सृजन और पोषण ही नहीं, अपितु संहार भी वे ही करती हैं। भगवद्गीता में महामाया को दैवी माया की संज्ञा दी गई है और वे इतनी शक्तिशाली हैं कि, असुर किसी भी प्रकार उनसे बच कर नहीं जा सकते। असुर को महामाया के त्रिशूल के आघात से तभी छुटकारा मिल सकता है, जब वह असुर, पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण की शरण में आ जाए। भौतिक जगत की अधीक्षिका के रूप मे, महामाया को दुर्गा बताया गया है, इन विराट ब्रह्मांडों के महान दुर्ग की रक्षिका। वे हमारे जीवन यापन की सभी आवश्यकताएं पूरी करती हैं, लेकिन जैसे ही हम इस भौतिक शक्ति के शोषण करने वाले महिषासुरों, रावणों, हिरण्यकशिपुओं अथवा अर्वाचीन युग में मुस्सोलिनी इत्यादि की तरह असुर बन जातें हैं, तो दुर्गा देवी तुरन्त अपना त्रिशूल धारण कर प्रकट हो जाती हैं। और युद्ध, सूखा, महामारी जैसी आपदों द्वारा पूरी सृष्टि को नष्ट करने लगती हैं अथवा कभी पूरे अस्तित्व का विनाश ही करने लगती हैं। ऐटमी अस्त्रों आदि जैसे विनाश के तरीके भले ही मानव मस्तिष्क की उपज हों, लेकिन उनका निर्माण भी दुर्गा देवी ही करती हैं। किन्तु भ्रमित असुरगण, जिन्हें प्रकृति के गुणों ने क्रियान्वित किया होता है, सोच बैठते हैं कि वास्तव में इन शस्त्रों का अविष्कारक अथवा स्रोत वे खुद हैं। इस प्रकार प्रकृति और असुरों के मध्य एक अविरत संघर्ष चल रहा है और इस प्रकार असुर नाना प्रकार के दण्ड भोग रहें हैं जिनका पार वे केवल तब पा सकते हैं जब वे पूरी तरह से परम भगवान का आश्रय प्राप्त कर लेते हैं।

भगवद्गीता का अन्तिम उपदेश है कि भगवद्गीता के रचियता भगवान की शरण पूर्णरूपेण ग्रहण की जाए, किन्तु राक्षसी बुद्धि के अभागे लोग भगवद्गीता को कुतार्किक पद्धति समझने की भूल कर बैठते हैं। और इसी कारणवश वही पुरुषोत्तम भगवान स्वयं के दिव्य भक्त के रूप में भगवद्गीता की उन्हीं पद्धतियों का प्रदर्शनात्मक प्रचार करते हैं, जो है परम भगवान् अथवा उनकी विभिन्न विभूतियों के प्रति पूर्ण शरणागत हो जाना।

इसका निरूपण करने की उनकी विधि भी बहुत उपयुक्त थी। उन्होंने मधुर राग के साथ संकीर्तन करने का आंदोलन छेड़ दिया, एक विधि जो कि जनसमुदाय के मध्य, व्यावहारिक तौर से, बहुत प्रभावशाली सिद्ध हुई है। वेदान्त अध्ययन या कठिन यौगिक पद्धतियों का पालन जनसामान्य के लिए संभव नहीं है। खासकर कलि-युग में, जहां सामान्यतः लोग आलसी, दुर्भाग्यपूर्ण, अल्पायु और सदैव शारीरिक एवं मानसिक क्लेशों से त्रस्त रहते हैं। महान संतों के अनुमान में यह साधारण जनसमुदाय पतित है और वास्तव में श्री चैतन्य महाप्रभु ही उनके उद्धार की एक मात्र आशा हैं। जब श्री चैतन्य महाप्रभु वाराणसी में थे, तब उन्हें प्रकाशानन्द सरस्वती द्वारा, जो कि एक प्रकाण्ड विद्वान एवं मायावादी अथवा शांकर सम्प्रदाय के सन्न्यासी थे, एक दार्शनिक सम्भाषण हेतु आमंत्रित किया गया था और वेदान्त दर्शन पर चर्चा हुई। श्री चैतन्य महाप्रभु उस चर्चा में विजयी रहे और उन्होंने उन महान सन्न्यासी को उनके 60,000 अनुयायियों समेत भक्तियोग में परिवर्तित कर दिया। और इसी के साथ उन्होंने संकीर्तन की सुगम विधि को जनसामान्य के उद्धार की सर्वोत्तम प्रणाली के रूप में स्थापित कर दिया।

तो भगवान के आविर्भाव की 463वीं वर्षगांठ के अवसर पर मेरा विनीत सुझाव है कि, प्रचार की जो विधियां भगवान चैतन्य ने अपनाई थीं, उन्हें गुरु-मण्डल में भी जनसाधारण के मंगल के लिए अंगीकार किया जा सकता है। शास्त्रीजी द्वारा सुझाई गई योग पद्धति की उपासना शायद जनसामान्य के लिए उपयुक्त न हो क्योंकि विरले ही वे लोग योग पद्धति के सिद्धांतों का अनुसरण कर पाएंगे और जैसा राजगुरु शास्त्रीजी ने बताया, कि ऐसी योग पद्धति में भूल-चूक होने से साधक बीमार पड़ सकते हैं और इस प्रकार जीवन भर के लिए हानि प्राप्त कर सकते हैं।

आपने अपनी मिल के कर्मियों को एक मनोरंजन सभा स्थापित करने के लिए प्रोत्साहित किया है। आपके कर्मचारियों का अपने उदार मालिकों के साथ जो सौहार्द्य है, जैसा कल के कार्यक्रम में स्पष्ट था, उसमें भगवान चैतन्य की सरल विधि के माध्यम से आध्यात्मिक प्रेरणा को भी जोड़कर और अधिक वृद्धि की जा सकती है। अपनी दिव्य लीला के अन्तिम चरण में, भगवान चैतन्य पुरी-धाम में वास करते थे और भगवान जगन्नाथ की पूजा किया करते थे। किसी कारणवश आपकी मिल के इलाके का नाम जगन्नाथ पुरी रखा गया है और मेरा सुझाव है कि इन मिल कर्मचारियों के हित में श्री जगन्नाथजी का एक वास्तविक मन्दिर, गुरु-मण्डल द्वारा स्थापित कर दिया जाए। यदि वे केवल सहजता से राम या कृष्ण अथवा दोनों का मधुर कीर्तन करें और उन्हें श्री जगन्नाथ का प्रसादम् दिया जाए, तो निश्चय ही वे उस आध्यात्मिक प्रवृत्ति को ग्रहण कर पाएंगे जो प्रत्येक मनुष्य में अन्तर्निहित है।

(पृष्ठ मौजूद नहीं)