HI/570507 - श्री पदमपत सिंघानिया को लिखित पत्र, कानपुर

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07 मई, 1957


श्री पदमपत सिंघानिया,
कमला टॉवर,
कानपुर


मेरे प्रिय श्री पद्मपत जी,

मेरे गत पत्र के सिलसिले में, जो मुझे आशा है की इस समय तक आपके पास पहुँच चुका होगा , और दुनिया भर में शक्तिशाली मंत्र के प्रसारण हेतु -आपके अनुरोध के संदर्भ में, मैं आपको सूचित करना चाहता हूं कि प्रत्येक मंत्र में उपसर्ग - 'नमः' को आम तौर पर जोड़ा जाता है। उदाहरण के लिए -आपने उस दिन नमः शिवाय कहा था। अब यह मंत्र, व्यावहारिक रूप से, भगवान शिव के पवित्र नाम की ओर संकेत देता है। 'ना' का अर्थ है नकारना और 'मा' का अर्थ है मिथ्य अहंकार या अहंकार। इसलिए नमः शिवाय का अर्थ है शिव नाम के प्रति आत्मसमर्पण। उस शब्दों में- भगवान शिव के प्रभुत्ता को स्वीकार करने का वाक्यांश है 'नमः शिवाय'। अतः ,निष्कर्ष यह है कि एक देवता के मंत्र में उस देवता का नाम स्वभाविक रूप से एकीकृत होता है । और इन मंत्रों में आध्यात्मिक शक्ति- नारद जैसे ऋषियों के द्वारा अधिभारित की जाती है -जैसे तांबे को चुंबकीय बल द्वारा विद्युतीकृत किया जाता है। व्युत्पत्ति संबंधी अक्षर इसी शैली से आध्यात्मिक शक्ति के साथ विकसित हो जाते है और इस तरह के सभी मंत्रों में भगवान या भगवत् तत्त्व के पारमार्थिक पवित्र नाम को दर्शाया जाता है। जब हम अधिकारियों द्वारा प्रस्तुत मंत्रों का जप करते हैं , तब यह प्रक्रिया ध्वनि तरंगों द्वारा देवत्व के व्यक्तित्व के साथ संचार सस्थापित करती है- जैसा कि हमने भौतिक तरंगों के कंपन से बनी -भौतिक दुनिया के साथ अनुभव किया है। अगर सही प्रविधि के अनुसार इन मंत्रों का उच्चारण्ड किया जाए, तब उनमे ऐसी शक्तियाँ प्रकट होती हैं। और मंत्रों का जाप करने से ही संपूर्ण अस्तित्व का आध्यात्मिकरण होता है - उसी तरह जैसे किसी गोलाकार वस्तु में ऊष्मा का विस्तार। मंत्र सिद्धि का अर्थ है पूर्ण मुक्ति। इसलिए, भगवन के पवित्र नाम और मंत्र के बीच कोई अंतर नहीं है। 'मन' का अर्थ है मन और 'त्र' का अर्थ है उद्धार। जो मानसिक अटकलों से किसी को बचाता है उसे "मंत्र" कहा जाता है। "मंत्र सिद्धि" का अर्थ -स्थूल और सूक्ष्म मानसिक स्थर के परेह जाना है। वही अर्थ _______ के लिए है।


खास इस युग में, भगवत तत्त्व के स्तर तक पहुंचाने के सभी मंत्र, हरि नाम पर केंद्रित हो चुके हैं। इसलिए हम ब्राह्ननारदीय पुराणम (३८/१२६) में हरिनाम पर एक विशेष बल पाते हैं जो इस प्रकार है:


हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलं

कलौ नास्त्यैव नास्त्यैव नास्त्यैव गतिरन्यथा


उपरोक्त कथन निम्नलिखित तरीके से बहुत महत्वपूर्ण है: 


ज्ञान प्राप्त करने के दो अलग प्रक्रियाएं हैं। एक वियोजक है और दूसरा आगमनात्‍मक है। वियोजन के प्रक्रिया में हम उच्च अधिकारियों के कथन से निष्कर्ष निकालते हैं जबकि आगमनात्‍मक के प्रक्रिया द्वारा हम स्वयं के अपूर्ण ज्ञान द्वारा सत्य का अनुसंधान करते हैं और फ़िर निष्कर्ष निकालते हैं। उदाहरण के लिए कहें कि यदि हम जानना चाहते हैं कि मनुष्य नश्वर कैसे है तो हमें दैनिक मृत्यु के आंकड़ों पर विश्लेषण करना होगा। राम मर जाता है, स्याम मर जाता है, पिता मर जाते है, माँ मर जाती है, यह मर जाता है, वह मर जाता है, आदि, ये सभी आकड़े हमें इस निष्कर्ष पर पहुंचाते है कि आखिरकार मनुष्य मर ही जाता है और इसलिए -'सारे मनुष्य नश्वर है ' । लेकिन ज्ञान की इस प्रक्रिया का दोष यह है कि यह हो सकता है कि हमने एक व्यक्ति को नहीं देखा हो, जो की हजारों वर्षों के बाद भी जीवित है। जैसे ही हमें यह जानकारी मिलती है , वैसे ही पूर्व निष्कर्ष- एका एक बदल जाता है और हमें यह कहना पड़ता है कि 'अधिकांश लोग नश्वर हैं'। इस तरह वैज्ञानिक चिंतन के अनुसंधान कार्यो में लगातार परिवर्तन हो रहे हैं क्योंकि यह कार्य उन व्यक्तियों द्वारा किया जा रहा है जो स्वयं -गलती, भ्रम, धोखा और असिद्धता के चार सिद्धांतों द्वारा प्रतिबंधित है। इसलिए, वियोजन की प्रक्रिया अधिक प्रभावी है। हमने वेदों जैसे आधिकारिक स्त्रोत्रों में पढ़ा है की मनुष्य नश्वर है और हमने इसे स्वीकार किया है। वेद कहते हैं कि मल अशुद्ध है लेकिन गाय का मल शुद्ध है। वेद कहते है कि हड्डी अछूत है, लेकिन शंख हड्डी होने के बावजूद भी पवित्र है। आम आदमी के लिए वेदों के कथन विरोधाभासी प्रतीत होते होंगे। लेकिन इस तरह के विरोधाभास के बावजूद, क्योंकि हम हिंदू वेदों को अधिकार के रूप में स्वीकार करते हैं, हम गोबर को शुद्ध मानते हैं और उसे रसोई में भी इस्तमाल करते हैं। इसीलिए हम शंख को भी स्वीकारतें हैं।जबकी शंख एक जानवर की हड्डी है, लेकिन क्योंकि यह वेदों द्वारा स्वीकार किया जाता है -हम शंख को हमारे घर के- पवित्र पूजा स्थली में रखते हैं। यदि हम भौतिक प्रयोगशाला में जांच करते हैं या रासायनिक परीक्षण द्वारा इसका विश्लेषण करते हैं, तो हम एक आदमी के मल और गाय के मल या फिर बैल की हड्डी और एक शंख के बीच , कोई अंतर नहीं पाएंगे। फिर भी पूरे हिंदू मुस्लिम टकराव , गांधी और जिन्ना के पूरे संघर्ष और UNSECO में कश्मीर समस्या का पूरा सवाल -केवल हड्डियों के इस छोटे अंतर से उत्पन्न हुआ है। हिंदू मंदिरो में पहले से ही शंख रखा जाता है ,लेकिन जैसे ही एक मुहम्मदन ने एक मंदिर में बैल की हड्डी का टुकड़ा फेंका,वैसे ही पूरी मुसीबत शुरू हो गई, जिसका परिणाम- भारत और पाकिस्तान का विभाजन हुआ था। एक निष्पक्ष सांसारिक छात्र - भारतीय इतिहास के पन्नों में इस तरह के मामलों के अनुसंधान कार्य में प्रवेश करने पर , निश्चित रूप से वेदों या कुरान या उस बाइबिल के शब्दों के प्रति- अप्रतिबंधित आज्ञाकारिता को जेहाद और धर्मयुद्ध के सभी प्रकार के उपद्रवो का मूल पाएगा। दुर्भागयवर्श, आधुनिक युग के तथाकथित बुद्धिमान व्यक्तियों ने इन धार्मिक झगड़ों के पश्चात ,धर्मनिरपेक्षता का आश्रय ले लिया है। यह एक और बक़वास है।


अतः,वर्तमान युग में वियोजना के प्रक्रिया के लिए सम्मान घटता जा रहा है जबकि आगमनात्‍मक तरीकों के लिए सम्मान बढ़ता जा रहा है, हालांकि हम जानते हैं कि आगमनात्‍मक शोध कि प्रक्रिया सफल नहीं हुई है। निष्कर्ष यह है कि हमने गुरु से चेला या पिता से पुत्र को सौंपे वैदिक ज्ञान में अपना विश्वास खो दिया है, हालांकि प्राधिकरण से इस तरह वियोजित ज्ञान प्राप्त करने का तंत्र, ज्ञान के सिद्धता का परिरक्षण निश्चित करता है। परम सत्य जो हमारी अपूर्ण इंद्रियों की पहुंच से परेह है, इस तरह के आगमनात्‍मक शोध कार्य से कभी भी नहीं जाना जा सकता है। अपूर्ण इन्द्रियां भौतिक तत्वों के उत्पाद सूर्य या असंख्य सितारों की दूरी को भी नहीं माप सकती हैं- तो क्या ऐसी अपूर्ण इंद्रियां मंत्रों में शोध कर सकती हैं जो की विशुद्ध रूप से आध्यात्मिक मामले है । हमें वैदिक स्रोत से मंत्रों और शक्ति को स्वीकार करना होगा और सत्य की वास्तविकता तक पहुंचने के लिए केवल अभ्यास और सिद्धांतों का पालन करना होगा। अपूर्ण इंद्रियों द्वारा अनुसंधान कार्य ,व्यावहारिक रूप से स्थापित सत्य के प्रति विद्रोह है। इसलिए हम बृहन्नारदीय पुराणम के वैदिक निषेध को स्वीकार करते हैं।


मैंने अपने गत पत्र में इस मंत्र के बारे में उल्लेख कर दिया था और मैं इस बात की पुष्टि करने हेतु निवेदन करता हूँ कि अगर अल्लाह जैसे विदेशी शब्द भी उस सर्वोच्च व्यक्तित्व " कृष्ण " के उद्देश्य से हैं, तो वे शब्द भी स्वयं भगवान के भाँति तीव्र व सशक्त हैं- क्योंकि पूर्ण क्षेत्र अतः, आध्यात्मिक प्रकृति में सब कुछ अभिन्न है क्योंकि वहाँ सब कुछ गुणात्मक रूप से आध्यात्मिक हैं और इसलिए शुद्ध, शाश्वत, मुक्त और परिपूर्ण हैं।


सभी व्यावहारिक उद्देश्यों के लिए यदि हम व्यवस्थित रूप से ईश्वर के पवित्र नाम का जाप करने का उपदेश देते हैं, मुझे लगता है कि कोई भी धार्मिक कट्टरपंथी इस पर आपत्ति नही करेगी। प्रत्येक मनुष्य में परम सत्य का बोध होता है। वे सभी धारणाएँ कुछ ठोस आकार में प्रस्तुत किए जातें हैं । इसलिए , यदि मुसल्मान या ईसाई लोग -" राम" और "कृष्ण" के नाम का जाप करने से इनकार करते हैं, तो हम उनसे अल्लाह या भगवान के नाम का जाप करने को कह सकते हैं । अतेव , मुझे नही लगता है की भगवान के नाम का व्यवस्थित तरीके से जप करने में बौद्धो को भी कोई आपत्ति होगी।


व्यवस्थित तरीके से जप की प्रक्रिया में, दस अलग-अलग अपराधों से बचना पड़ता है, जो की वास्तविकता में दार्शनिक सत्य हैं।


यदि भगवान के नाम को इस व्यवस्थित ढंग से जपने से ईर्ष्या, उच्छृंखलता, स्वार्थ, झूठ और आधुनिक युग के गंदे माहौल से बचा जा सकता है, और अगर इस तरह के जप से आत्म-साक्षात्कार की पूरी प्रक्रिया को प्राप्त किया जा सकता है, तो क्या इस सेवा को संयुक्त बल द्वारा पूर्ण करना हमारा कर्तव्य नहीं है ? क्लेश कलाप के इस युग में सफलता हासिल करने के लिए सब कुछ संयुक्त बल से करना जज़रूरी है। बड़े उद्योगों के समूह के प्रमुख के रूप में, आप मुझसे बेहतर जानते है कि संयुक्त बल और विविध ऊर्जाएं किस प्रकार एक उद्योग को सफल बनाती हैं।


उसी तरह हमें आध्यात्मिक आंदोलन को एक शानदार सफलता बनाने के लिए आदमी, धन, बुद्धि और क्षेत्र कृति जैसे समाजशास्त्र के विभिन्न बलों को जोड़ना होगा। यदि हम ऐसा नहीं करते हैं तो हम पूर्ण प्रयोजन हेतु अपने कर्तव्य में असफल रहेंगे। कोई भी आंशिक सेवा या अस्थायी लाभ हमें पूर्णता की ओर नहीं ले जा सकता है। इस तरह के अस्थायी लाभ और आंशिक सेवा के पीछे, पूरी दुनिया पागल है और यह हमारा कर्तव्य है कि हम एक अधिकृत आध्यात्मिक आंदोलन द्वारा पूरी तरह से विश्व के चेहरे को बदल दें। दूसरे दिन आपके विचारों को सुनकर मैं बहुत खुश हुआ था और मेरी आशा है की हमारे अगली मुलाकात में इस विषय पर अपनी अनुभूतियों को प्रस्तुत करूँगा। आशा है कि आप अच्छे होंगे। मेरी शुभकामनाओं सहित।


सादर,


गोस्वामी अभय चरण भक्तिवेदांत

( संपादक- “बैक टू गॉडहेड")