HI/580805 - रतनशी मोरारजी खटाऊ को लिखित पत्र, बॉम्बे

रतनशी मोरारजी खटाऊ को पत्र (पृष्ठ १ से ६)
रतनशी मोरारजी खटाऊ को पत्र (पृष्ठ २ से ६) (पृष्ठ ३ अनुपस्थित)
रतनशी मोरारजी खटाऊ को पत्र (पृष्ठ ४ से ६)
रतनशी मोरारजी खटाऊ को पत्र (पृष्ठ ५ से ६)
रतनशी मोरारजी खटाऊ को पत्र (पृष्ठ ६ से ६)


०५ अगस्त, १९५८

प्रति पंजीकृत डाक ए/डी के साथ।
श्री रतनशी मोरारजी खटाऊ,
भागवत सप्ताह के आयोजक (२२-७-५८ से २८-७-५८) (वेदांत सत्संग मंडल) के यहाँ
५५, न्यू मरीन लाइन्स,
बॉम्बे -१

श्रीमान,

मैं आपको सूचित करना चाहता हूं कि बॉम्बे आध्यात्मिक केंद्र के सचीव द्वारा मुझे आपका निमंत्रण पत्र प्राप्त हो चुका है, जो कि भागवत सप्ताह के आयोजन हेतु है। और चूँकि मुझे पता है कि मायावादियों द्वारा आयोजित भागवत सप्ता, किस तरह से मासूम जनता को गुमराह करती है, मैंने न केवल समारोह में भाग लेने से खुद को रोका है, बल्कि कई अन्य लोगों को सलाह दी कि वे पवित्र भागवत का पाठ ऐसे पुरुषों द्वारा न सुने जिनके पास इस महान ग्रंथ की पहुंच नहीं है और जिस ग्रंथ को केवल दिखावि धर्मों से मुक्त, उच्च श्रेणी के मुक्त व्यक्ति ही समझ सकतें हैं। मायावादियों को विशेष रूप से श्रीमद-भागवतम पुराणम पर चर्चा करने का कोई अधिकार नहीं है क्योंकि वे केवल मुक्ति (मोक्ष वनोह) के इच्छुक हैं। और तो और श्रीपदा शंकराचार्य जी ने, जो कि स्वयं शंकर के अवतार थे, बहुत ध्यान से पवित्र भगवतम पर कोई भी टिप्पणी नहीं की। श्रीपाद शंकराचार्य ने मायावादी दर्शन का प्रचार - नास्तिक वर्ग के पुरुषों को भ्रमित करने के लिए किया था ताकि उन्हें अधिक से अधिक नास्तिक बनने की प्रेरणा मिले और इस वह भौतिक प्रकृति की तीन गुणों के दयनीय स्थितियों के भीतर स्थायी रूप से पीड़ित रहे। लेकिन क्योंकि वे हृदय से सबसे महान भक्त थे, उन्होंने भागवतम पर अनधिकृत टिप्पणी करने की हिम्मत नहीं की, क्योंकि वह अच्छी तरह से जानते हैं कि जो व्यक्ति मुक्ति की आकांक्षा करता है या भागवतम के सर्वोच्च व्यक्तित्व की अवैयक्तिक विशेषता में अपनी पहचान विलीन करना चाहता है , वह श्रीमद भागवतम के लाभ से विमुख्त हैं। यदि आप श्रीमद-भागवतम को शुरूवात से पढ़ते हैं (जो कि एक गंभीर छात्र के लिए नितांत आवश्यक है) तो आप पाएंगे कि पहले स्कन्द के पहले अध्याय के दूसरे श्लोक में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि सांसारिक धर्म, आर्थिक विकास, इन्द्रिय तृप्ति और अंततः एक निराश मनुष्य की इच्छा ईश्वर के अवैयक्तिक विशेषता में विलीन हो जाने की इच्छा और इस तरह के अन्य सभी चीजें को पूर्ण रूप से इस महान दिव्य साहित्य श्रीमद-भागवतम, से फेंक दिया गया है। श्रीपाद श्रीधर स्वामी - भागवतम पर सबसे अधिकृत टीकाकार ने कहा है कि श्लोक में "प्र" को उपस्कन्द बनाकर मुक्ति की इच्छा (मोक्ष वनोह) को रोक दिया गया है। जो व्यक्ति शुद्ध वैष्णव नहीं है, वह श्रीमद-भागवतम को नहीं समझ सकता है। एक मायावादी एक तथा-कथित वैष्णव बनने का दिखावा कर सकता है, लेकिन क्योंकि वह हृदय में सर्वोच्च में विलीन होने की इच्छा रखता है, वह भक्ति पंथ को विकसित करने में असमर्थ होता है जो कि श्रीमद-भागवतम को समझने के लिए एक आवश्यक योग्यता है। और मानसिक चिंतनशील रचना में लिप्त मायावादियों और अन्य आम लोगों को योग्य बनाने के लिए, श्रीमद-भागवतम उन्हें १वें से ९वें स्कन्द में परम भगवान के व्यक्तित्व के बारे में निर्देश देता है। दुर्भाग्य से, मायावादी लोग गुमराह करने वाले सस्ते और भद्दे पेशेवर पाठकों के रूप में, श्रीमद-भागवतम के सबसे उत्मोत्तम और गुह्य रास पंचाध्याय के विषयों पर चर्चा करते दिखाई दे रहें है। भौतिक भोग के विचारों में लिप्त एक व्यक्ति निश्चित रूप से जहर के साथ खेलता है, जब वह किसी भी आध्यात्मिक अनुभूति के बिना, भगवान श्री कृष्ण के पारलौकिक और अति मधुर लीलाओं के साथ खेलवाड करता है। आपके भागवतम सप्ताह में शामिल होने वाले कुछ मित्रों ने मुझे बताया था कि कैसे कृष्ण को एक अनैतिक व्यक्तित्व के धब्बे से बचाने के लिए आपके संगठन में उनके अतीत को गलत तरीके से व्याख्यायित किया जा रहा था। भविष्य के इन मूर्ख दर्शकों को बचाने के लिए, महाराज परीक्षित ने पहले ही श्रीपाद शुकदेव गोस्वामी जी से भगवान श्रीकृष्ण के रासलीला गतिविधियों को समझाने का अनुरोध किया था। रास लीला की पारलौकिक प्रकृति को किसी भी मायावादी या सांसारिक नैतिकतावादी के बगावत की आवश्यकता नहीं है। लीला जो है वह है। श्रील व्यासदेव की इच्छा कभी भी यह नहीं थी कि भविष्य में रास लीला के वास्तविक उद्देश्य को किसी सांसारिक विद्वान के अपूर्ण ज्ञान पर निर्भर रहना पड़े। लेकिन इस संबंध में केवल एक चीज़ की आवश्यकता है, की हम सही स्त्रोतों के द्वारा, अपने आध्यात्मिक प्रशिक्षण की शुरूवात करें। भगवान की रासलीला गतिविधियों को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए श्रील सुकदेव गोस्वामी ने पहले ही भागवत के १०वें स्कन्द - अध्याय ३३ और श्लोक २९ से ३९ में इस बात की व्याख्या की है। मैं आपसे निवेदन करूंगा कि आप इन संदर्भों पर गौर करे, और विशेष रूप से श्लोक संख्या ३०, ३४ और ३९ पर विमर्श करें।

श्लोक संख्या ३० में कहा गया है की एक भौतिक व्यक्ति को न ही रासलीला पढ़ना चाहिए और न ही किसी भौतिक व्यक्ति से सुनना चाहिए। आपके संगठन में श्रोता और व्याख्याता दोनों ही सांसारिक हैं और रासलीला के मामले में उनका यह मूर्खतापूर्ण व्यवहार श्री रुद्र जी के हलाहल के सागर को ग्रहण करने के लीला की नक़ल करने के समान है। श्री हरि के पारलौकिक गतिविधियों में कुछ भी अनैतिक नहीं है और न ही उन्हें किसी अनैतिक आदमी के बचाव की आवश्यकता है, क्योंकि कृष्ण के पवित्र नाम को याद करने से या फिर अपने चरणकमल की सेवा करने से एक ही बार में व्यक्ति मुक्त हो सकता है। (भागवतम १०/३३/३४) इसके अलावा भक्ति भाव में बताई गई रासलीला को पढ़ने या सुनने का परिणाम भी बताया गया है (भागवतम ३०/३३/३९) की भक्त के हृदय की सारी वासनाएँ ग़ायब हो जाती हैं। ऐसे अशुद्ध व्यक्ति, जिनका हृदय काम वासना और सांसारिक विचारों से भरा हुआ है, न केवल भागवतम की बगावत करते हैं, पर अपने ही बर्बादी के मार्ग पर चलते हैं, वैसे ही जैसे विशपान करके व्यक्ति नरक की ओर धकेल दिया जाता है।

इसलिए मैं आपसे अनुरोध करूंगा कि धार्मिकता की आड़ में, आप प्रभु के पारलौकिक रास पंच अध्याय का सेवन कर, मासूम जनता को गुमराह न करें। यह समाज, धर्म के नाम पर अड़े इन सभी विसंगतियों को दूर करने के लिए बनाया गया है और मैं इन सभी बकवासों को रोकने के लिए आपके सहयोग की अपेक्षा करता हूँ। भारत के आध्यात्मिक संस्कृति का एक अद्वितीय स्थान है और इसे मानव समाज को सही स्रोतों द्वारा सही प्रसंग में सीखना होगा। एक भारतीय और एक व्यावहारिक व्यवसाय-मस्तिष्क वाले व्यक्ति होकर आपको कम से कम किसी भी अनधिकृत व्यक्ति के प्रभाव में आकर ऐसे किसी संगठन में शामिल नहीं होना चाहिए। ऐसे अनधिकृत व्यक्तियों के संगठन में शामिल होने के बजाय, आप कृपया प्राधिकरण से विज्ञान सीखें और अपने जीवन को प्रबुद्ध बनाएँ और मानव रूप के इस वरदान की सफलता प्राप्त कर सकते हैं। भक्तों का संगठन बिना किसी दिखावटी सम्मेलन के मानव समाज की सेवा करने के लिए एक संगठित प्रयास है। हम लोगों को सही दिशा में शिक्षित करने के लिए बैक टू गॉडहेड नाम का एक पत्रिका प्रकाशित कर रहे हैं और मैं इसके साथ एक पत्रिका भेज रहा हूं जिसमें कई सम्माननीय सज्जनों की राय शामिल है।

हमारा कर्तव्य है कि हम "भागवत" के कारण की रक्षा करें, या तो अनुरोध द्वारा या फिर आवश्यक कानूनी कार्रवाई करके और मुझे आशा है कि आप हमें इस कार्य के जिम्मेदार कर्ता के रूप में देखेंगे। आपके प्रारंभिक उत्तर की प्रतीक्षा में और प्रत्याशा में धन्यवाद,

आपका विश्वासी,

ए.सी. बी.

संलग्नक-१।