HI/651004 - श्रीपाद् नारायण महाराज को लिखित पत्र, पेंसिल्वेनिया
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4 अक्तूबर, 1965
केयर ऑफ- गोपाल पी. अग्रवाल
415 नॉर्थ मेन स्ट्रीट अपार्टमेंट 111
बट्लर, पेन्निसिलवेनिया, संयुक्त राज्य अमरीका
त्रिदंडी स्वामी
ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी
श्रीपाद् नारायण महाराज,
कृपया मेरे दण्डवत् स्वीकार करें और मेरे दण्डवत् मुनि महाराज एवं और सभी वैष्णवों को भी दें।
श्रील प्रभुपाद की कृपा से पश्चिम में आने के बाद से मेरे पास करने को इतना काम रहा है कि, हालांकि मैं आपको पत्र रखने बारे में सोच रहा था किन्तु अभी से पहले मैं लिख ही नहीं पाया। मैं यहां एक मास के लिए आया था लेकिन अगर अधिक अवधि तक रुक सका तो कार्य अच्छे ढंग से हो जाएगा। यहां लोग प्राकृतिक तौर पर ईसाई धर्म की ओर आकर्षित हैं लेकिन मुझसे सुनना भी पसंद करते हैं। जबसे यहां आया हूँ, मैं प्रतिदिन किसी गिरजाघर, विद्यालय, महाविद्यालय, क्लब अथवा सोसाइटी में वक्तव्य दे रहा हूँ। इनकी अंग्रज़ी समझनी मेरे लिए थोड़ी कठिन चूँकि ये शब्दों का उच्चारण अलग ढंग से करते हैं और हमारा अंग्रेज़ी का उच्चारण समझना इनके लिए कठिन है। लेकिन इस वजह से काम नहीं रुका है। ये मेरी अंग्रेज़ी नापसंद नहीं करते।
बट्लर ईगल अख़बार, जो कि सबसे बड़े प्रकाशनों में से है, में उन्हें मेरी अंग्रेज़ी पसंद आई है और उन्होंने मेरे चित्र के साथ निम्नलिखित लेख छापा हैः “हिन्दु संप्रदाय के भक्त धाराप्रवाह अंग्रज़ी में समझाते हैं उन्हें पसअचिम यात्रा का निर्देश – फीके संतरी लिहाफ में लिपटे, स्नान के सफेद जूते पहने, एक हल्के भूरे रंग के व्यक्ति कल एक छोटी गाड़ी से निकल कर बट्लर वॉय एम सी ए की एक सभा में उपस्थित हुए। ये हैं ए.सी.भक्तिवेदान्त स्वामी, भारत से पश्चिम के लोगों को एक संदेशवाहक। श्रद्धा से एक हिन्दु, इन विद्वान शिक्षक ने श्रीमद् भागवतम् जैसे शास्त्रीय साहित्य का पुरातन संस्कृत से अंग्रेज़ी में अनुवाद किया है। ये अब, अपने गुरु महाराज द्वारा दिया गया, अंग्रेजी भाषी लोगों को भगवान के साथ उनके संबंध का ज्ञान देने का मिशन पूरा कर रहे हैं।"
मैंने संक्षेप में अपना विस्तृत जीवन वृतान्त समझा दिया है। मेरे चित्र के नीचे मैंने लिखा है(बड़े अक्षरों मे) भक्तियोग का राजदूत ”भगवान के पवित्र नाम का जप, ए. सी. भक्तिवेदान्त स्वामी की धार्मिक गतिविधियों में से है, जो सोमवार को बट्लर क्षेत्र में एक मास के लिए ‘पश्चिम में एक प्रचारक’ के रूप में आए हैं। चित्र में संयुक्त राज्य के अपने प्रायोजक, गोपाल अग्रवाल के अपार्टमेंट में दर्शाये गए, स्वामिजी वाय एम शी ए में रह रहे हैं और अग्रवाल निवास में स्वयं अपना भोजन पकाते हैं। ‘प्रत्येक संस्कृति का एक धर्म है’, वे कहते हैं’। ’हम सभी किसी न किसी प्रकार की सेवा में संलग्न हैं, सर्वोच्च सेवा परम भगवान की है।‘ इन विद्वान शिक्षक ने संस्कृत शास्त्र की 60 पुस्तकें अंग्रेज़ी में अनूदित की हैं। अब सत्तर वर्ष के ये, संयुक्त राज्य को नियुक्त प्रचारक, भारत में बैचलर ऑफ आर्ट्स तक शिक्षा प्राप्त हैं। इनकी दीक्षा 1933 में हुई और 1936 में इनके नेता की मृत्यु तक इन्हें उपदेश मिलते रहे। अपनी श्रद्धा का अनुसरण करने के लिए ये सभी पारिवारिक नाते तोड़ कर, अपनी पत्नी, संतानें और कलकत्ते में एक व्यवसाय का त्याग कर चुके हैं।”
अटलांटिक महासागर पार करने में दस दिन का समय लगा। यह विशलकाय समुद्र सामान्यतः तूफान व धुंध से भरा रहता है और बहुत विचलित कर देने वाला रहता है। पर कृष्ण की कृपा से कोई विघ्न हीं पड़ा। जहाज़ के कप्तान, मुख्य अफसर ने मुझसे कहा, “ऐसा शान्त अटलान्टिक तो मैंने अपने जीवन में कभी नहीं देखा।” मैंने उन्हें बताया कि यह कृष्ण की कृपा है और कुछ नहीं। अरब सागर के असुविधाजनक तूफान के पश्चात् मुझे मालूम था कि यदि मुझे ऐसा तूफान फिरसे देखना पड़ा तो मैं मर जाऊंगा।
मैं साचता हूं कि यहां पर प्रचार बहुत अच्छा होगा। मैं किसी दिन एक घंटा और किसी दिन डेढ़ घंटा वक्तव्य दे रहा हूँ। अमरीकी लोग अब एक अलग स्वाद चख रहे हैं। मैं पहली बार किसी दूसरे देश में आया हूँ, बारह हज़ार मील पार करके। यहां पर सब जातिहीन हैं(वर्णाश्रम धर्म के बाहर), फिर भी मैं इनके समक्ष बोलने से कभी डरता नहीं हूँ। अपने जीवन में मैंने पहली बार किसी गिरजाघर में भाषण दिया। मुख्य बात यह है कि मैं अकेला हूँ और अब बूढ़ा हूँ। इसी वजह से एक पानी के जहाज़ में बारह हज़ार मील पार करते हुए मैं अत्यधिक बीमार पड़ गया। मैंने बंगाल की खाड़ी, हिंद महासागर, अरब सागर, लाल सागर, भूमध्य सागर और अटलांटिक महासागर पार किये। मैं ऐशिया, यूरोप और अफ्रीका से होकर गुज़रा। मैं इन सागरों एंव महासागरों से होकर गुज़रा और इतना बीमार पड़ गया। मेरी प्रार्थना के कारण उन्होंने मुझे जहाज़ पर शाकाहारी भोजन पेश किया पर मैं वह नहीं ग्रहण कर सका। मैंने आठ से दस दिन तक लगातार उपवास किया। मेरे शरीर में पित्त बहुत बढ़ गया और फलस्वरूप मैं आन्त्रशोध से बुरी तरह ग्रस्त हो गया।
इसके बाद जहाज़ के कप्तान ने सैद बंदरगाह में मेरे लिए एक विद्युतचालित चूल्हा खरीदा। फिर मैंने अपने लिए रसोई की और प्रसाद ग्रहण किया। यदि उन्होंने मेरे लिए उस चूल्हे की व्यवस्था न की होती तो शायद मेरे अमरीका पंहुचने की कोई संभावना ही न बचती। मैं राह में ही मर सकता था, पर कृष्ण कृपावश मुझे यहां ले आए। कृष्ण यहां मुझे किसलिए लाए हैं, यह तो वे ही जानें।
यहां बहुत महंगाई है। मुझे वाय एम सी ऐ में एक कमरा मिला, जिसका साप्ताहिक भाड़ा पचपन रुपए है। यह बहुत, बहुत मंहगा देश है। यहां मज़दूर भारत के सज्जनों से अधिक कमाते हैं। उन्हें प्रतिदिन अस्सी से पिचास्सी या नब्बे रुपए दिए जाते हैं। हरेक के पास मोटरगाड़ी है चूंकि दफ्तर और बाज़ार बहुत दूर हैं। प्रत्येक सभ्य व्यक्ति के पास एक गाड़ी है, जो प्रत्येक दस हज़ार रुपए की होती है। भारत में वही गाड़ी पचास हज़ार रुपए की मिलेगी। लोग अपनी गाड़ियां स्वयं चलाते हैं, उनके लिए वेतन प्राप्त चालक नहीं होते। वे नौकर भी नहीं रखते। लाखों लाख मोटरगाड़ियां हैं। जब मैं न्यु यॉर्क से बट्लर आया तो मैंने देखा कि दो लेन में, पाँच सौ मील, तक केवल गाड़ियों की ठोस कतार थी। बिजली की बत्तियों की आवश्यकता ही नहीं थी क्योंकि इतनी सारी गाड़ियां थीं। रात के समय दुकानें रौशन होती हैं और लगता जैसे दिन हो। इतने सारे पुल और ऊपरगामी सड़कें हैं कि गाड़ियों को एक दूसरे को किसी पतली सड़क में पार नहीं करना पड़ता। प्रत्येक गाड़ी कमसे कम पचास मील प्रति घंटे की रफ्तार से चलती है। कई मकान पच्चीस से तीस मंज़िले ऊंचे हैं। इस मोहल्ले में छोटे भूखण्डों पर बंगले बने हैं। ये लोग बहुत सभ्य हैं पर उग्र हैं(गुस्सैल, न कि नम्र या विनीत)।
आज न्यु यॉर्क में पोप का आगमन हुआ। सबने यह टेलिविजन पर देखा। टेलिविजन अद्भुत चीज़ है। मात्र एक कमरे में बैठे हुए, वे देख सकते हैं कि पूरी दुनिया में क्या चल रहा है और किस प्रकार वे एक दूसरे से व्यवहार कर रहे हैं। “दिन व्यर्थ के कामों में और रात सोने में निकलती है”। यहां लोग प्रायः मांसाहारी हैं। बिना मांस के ये कुछ खा ही नहीं सकते। मैं मूड़ि और मूंगफली ससों के तेल के साथ ले रहा हूँ। कहीं से मुझे सरसों का तेल मिल गया। सभी कुछ मिलता है पर दाम बहुत ऊंचे हैं। मैंने केवल ढाई सौ ग्राम सरसों का तेल पांच रुपए में खरीदा। मुझे उसे प्राप्त करने के लिए बीस माल दूर एक दुकान तक जाना पड़ा। अगर आप इस देश में आना चाहते हो तो मुझे उत्तर लिखो।
स्वामी महाराज
- HI/1965 - श्रील प्रभुपाद के पत्र
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