HI/750726 - दीनानाथ एन. मिश्रा को लिखित पत्र, लगूना बीच

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26 जुलाई, 1975

श्रीमन् डी.एन. मिश्रा
179, बलराम डे स्ट्रीट
कलकत्ता -6

मेरे प्रिय दीनानाथः

कृपया मेरे अभिवादन स्वीकार करो। मुझे तुम्हारा 27 जुलाई, 1975 का पत्र प्राप्त हुआ है और मैंने इसे पढ़ लिया है। भगवान रामचंद्र के ऊपर तुम्हारी पुस्तक, जो आंशिक रूप से अंग्रेज़ी में अनूदित हो चुकी है, को देखने के लिए मैं बहुत उत्सुक हूँ। अक्तूबर मास में मैं भारत लौट रहा हूँ। इसलिए जल्दी की कोई बात नहीं हैं। लौटने के बाद मैं प्रसन्नतापूर्वक तुम्हारी पुस्तक को बम्बई, वृंदावन अथवा कलकत्ता में देखुंगा।

मुझे सभी पुराणों, रामायण, महाभारत व गौड़ीय वैष्णवों-प्रमुखतः रूप सनातन व जीव आदि गोस्वामियों-द्वारा संरचित अनेकों धार्मिक साहित्यों का अनुवाद करना है। मैं पहले ही 50 बृहत् पुस्तकें, जिनमें से प्रत्येक 400 पृष्ठों की है, अनुवाद कर चुका हूँ। और मेरी पुस्तकें विश्वभर के विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों, पुस्तकालयों व विद्वान प्राध्यापकों द्वारा खरीदी जा रहीं हैं। और सामान्य जनता भी उन्हें बहुत सम्मान दे रही है। अवश्य ही वे मेरी पुस्तकें नहीं हैं, चूंकि मैंने तो उनका अनुवाद मात्र किया है। किन्तु भगवद्गीता एवं श्रीमद्भागवतम् के प्रत्येक श्लोक पर मेरी टीकाएं, जनसाधारण व विद्वद्गण, दोनों को ही बहुत आकर्षित कर रही हैं। वे बहुत सराहना कर रहे हैं और हम इनकी बिक्री प्रति मास 30 से 40 हज़ार रुपए तक कर रहे हैं। इसमें से 50 प्रतिशत् हम विश्वभर के हमारे मन्दिरों का निर्वाह करने में और 50 प्रतिशत् मेरी पुस्तकों की पुनः छपाई में लगा रहे हैं।

मैं इसमें से कोई रॉयल्टी व मुनाफ़ा नहीं लेता हूँ। इसी प्रकार यदि तुम भी किसी मुनाफे या रॉयल्टी की अपेक्षा न रखने को तैयार हो जाओ, तो हमारा भक्तिवेदान्त बुक ट्रस्ट, भगवान रामचंद्र पर तुम्हारी पुस्तक प्रकाशित करेगा।

मेरी एक बड़ी इच्छा है कि वाल्मीकी रामायण का अनुवाद करूं, चूंकि वह मान्यता प्राप्त है। तुलसी दास का चरित मानस तो पहले ही किसी पुरोहित द्वारा अंग्रेज़ी में अनूदित किया जा चुका है। उसका ठीक-ठीक नाम मैं नहीं जानता। इसलिए मैं वाल्मीकी रामायण का अनुवाद भी ठीक उसी प्रकार से करना चाहता हूँ, जैसे मैंने श्रीमद्भागवतम् का किया है। मैं यहां हमारे मासिक पत्र-“बैक टू गॉडहेड”-की एक प्रति भेज रहा हूँ, जिसमें तुम श्रीमद्भागवतम् की अनुवाद शैली देखोगे। वह पृष्ठ संख्या 14 से प्रारंभ होती है। इससे तुम्हें मालुम पड़ेगा कि हम किस प्रकार से अनुवाद करना चाहते हैं। अन्यथा तुम तुम्हारे पुत्र सहित 3, एल्बर्ट रोड, कलकत्ता स्थित हमारे मन्दिर में आमंत्रित हो। वहां तुम मेरी पुस्तकों में, श्लोक का अंग्रेज़ी में तात्पर्य देने की, अनुवाद शैली दैख सकते हो।

इसी कारणवश मैंने अपने पिछले पत्र में तुम्हें सुझाया था कि तुम वान्प्रस्थ जीवन स्वीकार कर सकते हो, चूंकि तुम्हारी उम्र बहुत हो चुकी है और एक ब्राह्मण परिवार में जन्म लेने के कारण यह तुम्हारा कर्त्तव्य भी है। हमारे वैदिक सिद्धान्त के अनुसार, एक ब्राह्मण को, ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं सन्न्यास नामक जीवन के चार आश्रम स्वीकार करने होते हैं। अन्य कोई सन्न्यास नहीं लेता किन्तु जो ब्राह्मण है उसके लिए जीवन के अंत में सन्न्यास लेना अनिवार्य है।

तो मेरा सुझाव है कि तुम अब पारिवारिक जीवन से निवृत्त हो जाओ और अपनी पत्नी को अपनी सहायिका के रूप में रखकर, वैदिक साहित्य का यथासंभव अनुवाद करने में संलग्न होते हुए, कम से कम वानप्रस्थ आश्रम स्वीकार करो।

ऐसा प्रतीत होता है कि पाश्चात्य देशों में वैदिक साहित्य के वास्तविक ज्ञान की बहुत मांग है। तुम अंग्रेज़ी व हिन्दी, दोनों ही के एक प्रबुद्ध विद्वान हो और तुम भगवान रामचंद्र की सेवा में पूर्णतः संलग्न होकर ऐसा कर सकते हो।

मैंने पूरे विश्व में अनेकों मन्दिर खोले हैं, जिनकी संख्या 100 है। उनमें से कुछ मन्दिरों के कुछ विग्रहों की तस्वीरें यहां संलग्न हैं।

अभी हाल ही में हमने 50 लाख या उससे भी अधिक रुपयों के खर्च पर वृंदावन में हमारे मन्दिर की स्थापना की है। उत्तर प्रदेश के राज्यपाल, डॉ.चन्ना रेड्डी, उद्घाटन समारोह के अवसर पर दो दिन उपस्थित थे। सारे गोस्वामियों एवं अखानन्द स्वामी सरीखे सन्न्यासियों ने समारोह में उपस्थिति दी। हमारे पास वहां लगभग 80 कमरों की अतिथिशाला है और हाल में मिले ब्यौरों के अनुसार कम-से-कम 500 व्यक्ति प्रतिदिन मन्दिर आते हैं। ग़रीबो को प्रसाद वितरण किया जा रहा है और अन्य लोग प्रतिदिन रु.100/- तक का प्रसाद(पक्की) क्रय कर रहे हैं। हम अपनी पुस्तकें भी बेच रहे हैं।

अब कुछ मन्दिर रामचंद्र, सीताराम, के स्थापित करने की मेरी अभिलाषा है। अवश्य ही यह भगवान रामचंद्र की कृपा पर निर्भर करता है। इसलिए मैं तुमसे अनुरोध कर रहा हूँ कि पारिवारिक जीवन से पूर्णतया निवृत्त होकर और स्वयं को अपने बाकी जीवन भर के लिए अनुवाद कार्य में लगाते हुए, हमारे आंदोलन में सम्मिलित हो जाओ।

मिलने पर और बात करेंगे। मैं आशा करता हूँ कि यह तुम्हें अच्छे स्वास्थ्य में प्राप्त हो।

सर्वदा तुम्हारा शुभाकांक्षी,

(हस्ताक्षर)

ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी

एसीबीएस/बीएस

N.B. स्वयं को डी.लिट्, डी.डी. की उपाधि से सज्जित करने वाले साधारण व्यक्ति के लिए क्या आपराधिक दण्ड है?