HI/BG 10.14

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 14

सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव ।
न हि ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः ॥१४॥

शब्दार्थ

सर्वम्—सब; एतत्—इस; ऋतम्—सत्य को; मन्ये—स्वीकार करता हूँ; यत्—जो; माम्—मुझको; वदसि—कहते हो; केशव—हे कृष्ण; न—कभी नहीं; हि—निश्चय ही; ते—आपके; भगवन्—हे भगवान्; व्यक्तिम्—स्वरूप को; विदु:—जान सकते हैं; देवा:—देवतागण; न—न तो; दानवा:—असुरगण।

अनुवाद

हे कृष्ण! आपने मुझसे जो कुछ कहा है, उसे मैं पूर्णतया सत्य मानता हूँ | हे प्रभु! न तो देवतागण, न असुरगण ही आपके स्वरूप को समझ सकते हैं |

तात्पर्य

यहाँ पर अर्जुन इसकी पुष्टि करता है कि श्रद्धाहीन तथा आसुरी प्रकृति वाले लोग कृष्ण को नहीं समझ सकते | जब देवतागण तक उन्हें नहीं समझ पाते तो आधुनिक जगत् के तथाकथित विद्वानों का क्या कहना ? भगवत्कृपा से अर्जुन समझ गया कि परमसत्य कृष्ण हैं और वे सम्पूर्ण हैं | अतः हमें अर्जुन के पथ का अनुसरण करना चाहिए | उसे भगवद्गीता का प्रमाण प्राप्त था | जैसा कि भगवद्गीता के चतुर्थ अध्याय में कहा गया है , भगवद्गीता के समझने की गुरु-परम्परा का ह्रास हो चुका था, अतः कृष्ण ने अर्जुन से उसकी पुनःस्थापना की, क्योंकि वे अर्जुन को अपना परम प्रिय सखा तथा भक्त समझते थे | अतः जैसा कि गीतोपनिषद् की भूमिका में हमने कहा है, भगवद्गीता का ज्ञान परम्परा-विधि से प्राप्त करना चाहिए | परम्परा-विधि के लुप्त होने पर उसके सूत्रपात के लिए अर्जुन को चुना गया | हमें चाहिए कि अर्जुन का हम अनुसरण करें, जिसने कृष्ण की सारी बातें जान लीं | तभी हम भगवद्गीता के सार को समझ सकेंगे और तभी कृष्ण को भगवान् रूप में जान सकेंगे |