HI/BG 11.48

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 48

न वेदयज्ञाध्ययनैर्न दानैर्-
न च क्रियाभिर्न तपोभिरुग्रैः ।
एवंरूपः शक्य अहं नृलोके
द्रष्टुं त्वदन्येन कुरुप्रवीर ॥४८॥

शब्दार्थ

न—कभी नहीं; वेद-यज्ञ—यज्ञ द्वारा; अध्ययनै:—या वेदों के अध्ययन से; न—कभी नहीं; दानै:—दान के द्वारा; न—कभी नहीं; च—भी; क्रियाभि:—पुण्य कर्मों से; न—कभी नहीं; तपोभि:—तपस्या के द्वारा; उग्रै:—कठोर; एवम्-रूप:—इस रूप में; शक्य:—समर्थ; अहम्—मैं; नृ-लोके—इस भौतिक जगत में; द्रष्टुम्—देखे जाने में; त्वत्—तुम्हारे अतिरिक्त; अन्येन—अन्य के द्वारा; कुरु-प्रवीर—कुरु योद्धाओं में श्रेष्ठ।

अनुवाद

हे कुरुश्रेष्ठ! तुमसे पूर्व मेरे इस विश्र्वरूप को किसी ने नहीं देखा, क्योंकि मैं न तो वेदाध्ययन के द्वारा, न यज्ञ, दान, पुण्य या कठिन तपस्याके द्वारा इस रूप में, इस संसार में देखा जा सकता हूँ |

तात्पर्य

इस प्रसंग में दिव्य दृष्टि को भलीभाँति समझ लेना चाहिए | तो यहदिव्य दृष्टि किसके पास हो सकती है? दिव्य का अर्थ है दैवी | जब तक कोईदेवता के रूप में दिव्यता प्राप्त नहीं कर लेता, तब तक उसे दिव्य दृष्टिप्राप्त नहीं हो सकती | और देवता कौन है? वैदिक शास्त्रों का कथन है कि जोभगवान् विष्णु के भक्त हैं, वे देवता हैं (विष्णुभक्ताः स्मृता देवाः) | जोनास्तिक हैं, अर्थात् जो विष्णु में विश्वास नहीं करते या जो कृष्ण केनिर्विशेष अंश को परमेश्र्वर मानते हैं, उन्हें यह दिव्य दृष्टि नहींप्राप्त हो सकती | ऐसा सम्भव नहीं है कि कृष्ण का विरोध करके कोई दिव्यदृष्टि भी प्राप्त कर सके | दिव्य बने बिना दिव्य दृष्टि प्राप्त नहीं कीजा सकती | दूसरे शब्दों में, जिन्हें दिव्य दृष्टि प्राप्त है, वे भीअर्जुन की ही तरह विश्र्वरूप देख सकते हैं |

भगवद्गीतामेंविश्र्वरूप का विवरण है | यद्यपि अर्जुन के पूर्व वह विवरण अज्ञात था, किन्तु इस घटना के बाद अब विश्र्वरूप का कुछ अनुमान लगाया जा सकता है | जोलोग सचमुच ही दिव्य हैं, वे भगवान् के विश्र्वरूप को देख सकते हैं | किन्तुकृष्ण का शुद्धभक्त बने बिना कोई दिव्य नहीं बन सकता | किन्तु जो भक्तसचमुच दिव्य प्रकृति के हैं, और जिन्हें दिव्य दृष्टि प्राप्त हैं, वेभगवान् के विश्र्वरूप का दर्शन करने के लिए उत्सुक नहीं रहते | जैसा किपिछले श्लोक में कहा गया है, अर्जुन ने कृष्ण के चतुर्भुजी विष्णु रूप कोदेखना चाहा, क्योंकि विश्र्वरूप को देखकर वह सचमुच भयभीत हो उठा था |

इस श्लोक में कुछ महत्त्वपूर्ण शब्द हैं, यथा वेदयज्ञाध्ययनैः जो वेदोंतथा यज्ञानुष्ठानों से सम्बन्धित विषयों के अध्ययन का निर्देश करता है | वेदों का अर्थ हैं, समस्त प्रकार का वैदिक साहित्य यथा चारों वेद (ऋग्, यजु,साम तथा अथर्व) एवं अठारहों पुराण, सारे उपनिषद् तथा वेदान्त सूत्र | मनुष्य इस सबका अध्ययन चाहे घर में करे या अन्यत्र | इसी प्रकार यज्ञ विधिके अध्ययन करने के अनेक सूत्र हैं – कल्पसूत्र तथा मीमांसा-सूत्र| दानैःसुपात्र को दान देने के अर्थ से आया है; जैसे वे लोग जो भगवान् की दिव्यप्रेमाभक्ति में लगे रहते हैं, यथा ब्राह्मण तथा वैष्णव | इसी प्रकारक्रियाभिः शब्द अग्निहोत्र के लिए है और विभिन्न वर्णों के कर्मों के सूचकहै | शारीरिक कष्टों को स्वेच्छा से अंगीकार करना तपस्या है | इस तरहमनुष्य भले ही इस कार्यों – तपस्या, दान, वेदाध्ययन आदि को करे, किन्तु जबतक अर्जुन की भाँति भक्त नहीं होता, तब तक वह विश्र्वरूप का दर्शन नहीं करसकता | निर्विशेषवादी भी कल्पना करते रहते हैं कि वे भगवान् के विश्र्वरूपका दर्शन कर रहे हैं, किन्तु भगवद्गीता से हम जानते हैं कि निर्विशेषवादीभक्त नहीं हैं | फलतः वे भगवान् के विश्र्वरूप को नहीं देख पाते |

ऐसे अनेक पुरुष हैं जो अवतारों की सृष्टि करते हैं | वे झूठे ही सामान्यव्यक्ति को अवतार मानते हैं, किन्तु यह मुर्खता है | हमें तो भगवद्गीता काअनुसरण करना चाहिए, अन्यथा पूर्ण आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्ति की कोईसम्भावना नहीं है | यद्यपि भगवद्गीता को भगवत्तत्व का प्राथमिक अध्ययन मानाजाता है, तो भी यह इतना पूर्ण है कि कौन क्या है, इसका अन्तर बताया जासकता है | छद्म अवतार के समर्थक यह कह सकते हैं कि उन्होंने भी ईश्र्वर केदिव्य अवतार विश्र्वरूप को देखा है, किन्तु यह स्वीकार्य नहीं, क्योंकियहाँ पर स्पष्ट उल्लेख हुआ है कि कृष्ण का भक्त बने बिना ईश्र्वर केविश्र्वरूप को नहीं देखा जा सकता | अतः पहले कृष्ण का शुद्धभक्त बनना होताहै, तभी कोई दावा कर सकता है कि वह विश्र्वरूप का दर्शन कर सकता है, जिसेउसने देखा है | कृष्ण का भक्त कभी भी छद्म अवतारों को या इनके अनुयायियोंको मान्यता नहीं देता |