HI/BG 12.2

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 2

श्रीभगवानुवाच
मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते ।
श्रद्धया परयोपेताः ते मे युक्ततमा मताः ॥२॥

शब्दार्थ

श्री-भगवान् उवाच—श्रीभगवान् ने कहा; मयि—मुझमें; आवेश्य—स्थिर करके; मन:—मन को; ये—जो; माम्—मुझको; नित्य—सदा; युक्ता:—लगे हुए; उपासते—पूजा करते हैं; श्रद्धया—श्रद्धापूर्वक; परया—दिव्य; उपेता:—प्रदत्त; ते—वे; मे—मेरे द्वारा; युक्त-तमा:—योग में परम सिद्ध; मता:—माने जाते हैं।

अनुवाद

श्रीभगवान् ने कहा – जो लोगअपने मन को मेरे साकार रूप में एकाग्र करते हैं, और अत्यन्त श्रद्धापूर्वकमेरी पूजा करने में सदैव लगे रहते हैं, वे मेरे द्वारा परम सिद्ध मानेजाते हैं |

तात्पर्य

अर्जुन के प्रश्न का उत्तर देते हुएकृष्ण स्पष्ट कहते हैं कि जो व्यक्ति उनके साकार रूप में अपने मन को एकाग्रकरता है, और जो अत्यन्त श्रद्धा तथा निष्ठापूर्वक उनको पूजता है, उसे योगमें परम सिद्ध मानना चाहिए | जो इस प्रकार कृष्णभावनाभावित होता है, उसकेलिए कोई भी भौतिक कार्यकलाप नहीं रह जाते, क्योंकि हर कार्य कृष्ण के लिएकिया जाता है | शुद्ध भक्त निरन्तर कार्यरत रहता है – कभी कीर्तन करता है, तो कभी श्रवण करता है, या कृष्ण विषयक कोई पुस्तक पढता है, या कभी-कभीप्रसाद तैयार करता है या बाजार से कृष्ण के लिए कुछ मोल लाता है, या कभीमन्दिर झाड़ता-बुहारता है, तो कभी बर्तन धोता है | वह जो कुछ भी करता है, कृष्ण सम्बन्धी कार्यों के अतिरिक्त अन्य किसी कार्य में एक क्षण भी नहींगँवाता | ऐसा कार्य पूर्ण समाधि कहलाता है |