HI/BG 16.19

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 19

तानहं द्विषतः क्रुरान्संसारेषु नराधमान् ।
क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु ॥१९॥

शब्दार्थ

तान्—उन; अहम्—मैं; द्विषत:—ईष्र्यालु; क्रूरान्—शरारती लोगों को; संसारेषु—भवसागर में; नर-अधमान्—अधम मनुष्यों को; क्षिपामि—डालता हूँ; अजस्रम्—सदैव; अशुभान्—अशुभ; आसुरीषु—आसुरी; एव—निश्चय ही; योनिषु—गर्भ में।

अनुवाद

जो लोग ईर्ष्यालु तथा क्रूर हैं और नराधम हैं, उन्हें मैं निरन्तर विभिन्न आसुरी योनियों में, भवसागर में डालता रहता हूँ ।

तात्पर्य

इस श्लोक में स्पष्ट इंगित हुआ है कि किसी जीव को किसी विशेष शरीर में रखने का परमेश्र्वर को विशेष अधिकार प्राप्त है । आसुरी लोग भले ही भगवान् की श्रेष्ठता को न स्वीकार करें और वे अपनी निजी सनकों के अनुसार कर्म करें, लेकिन उनका अगला जन्म भगवान् के निर्णय पर निर्भर करेगा, उन पर नहीं । श्रीमद्भागवत के तृतीय स्कंध में कहा गया है कि मृत्यु के बाद जीव को माता के गर्भ में रखा जाता है, जहाँ उच्च शक्ति के निरिक्षण में उसे विशेष प्रकार का शरीर प्राप्त होता है । यही कारण है कि संसार में जीवों की इतनी योनियाँ प्राप्त होती हैं – यथा पशु, कीट, मनुष्य आदि । ये सब परमेश्र्वर द्वारा व्यवस्थित हैं । वे अकस्मात् नहीं आईं । जहाँ तक असुरों की बात है , यहाँ यह स्पष्ट कहा गया है कि ये असुरों के गर्भ में निरन्तर रखे जाते हैं । इस प्रकार ये ईर्ष्यालु बने रहते हैं और मानवों में अधम हैं । ऐसे आसुरी योनि वाले मनुष्य सदैव काम से पूरित रहते हैं, सदैव उग्र, घृणास्पद तथा अपवित्र होते हैं । जंगलों के अनेक शिकारी मनुष्य आसुरी योनि से सम्बन्धित माने जाते हैं ।