HI/BG 18.32

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 32

अधर्मं धर्ममिति या मन्यते तमसावृता ।
सर्वार्थान्विपरीतांश्च बुद्धिः सा पार्थ तामसी ॥३२॥

शब्दार्थ

अधर्मम्—अधर्म को; धर्मम्—धर्म; इति—इस प्रकार; या—जो; मन्यते—सोचती है; तमसा—भ्रम से; आवृता—आच्छादित, ग्रस्त; सर्व-अर्थान्—सारी वस्तुओं को; विपरीतान्—उल्टी दिशा में; च—भी; बुद्धि:—बुद्धि; सा—वह; पार्थ—हे पृथापुत्र; तामसी—तमोगुण से युक्त।

अनुवाद

जो बुद्धि मोह तथा अंधकार के वशीभूत होकर अधर्म को धर्म तथा धर्म को अधर्म मानती है और सदैव विपरीत दिशा में प्रयत्न करती है, वह तामसी है ।

तात्पर्य

तामसी बुद्धि को जिस दिशा में काम करना चाहिए, उससे सदैव उल्टी दिशा में काम करती है | यह उन धर्मों को स्वीकारती है, जो वास्तव में धर्म नहीं हैं और वास्तविक धर्म को ठुकराती है | अज्ञानी मनुष्य महात्मा को सामान्य व्यक्ति मानते हैं और सामान्य व्यक्ति को महात्मा स्वीकार करते हैं | वे सत्य को असत्य तथा असत्य को सत्य मानते हैं | वे सारे कामों में कुपथ ग्रहण करते हैं, अतएव उनकी बुद्धि तामसी होती है |