HI/BG 2.5

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 5

गुरूनहत्वा हि महानुभावान्
श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके ।
हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव
भुञ्जीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान् ॥५॥

शब्दार्थ

गुरून्—गुरुजनों को; अहत्वा—न मार कर; हि—निश्चय ही; महा-अनुभावान्—महापुरुषों को; श्रेय:—अच्छा है; भोक्तुम्—भोगना; भैक्ष्यम्—भीख माँगकर; अपि—भी; इह—इस जीवन में; लोके—इस संसार में; हत्वा—मारकर; अर्थ—लाभ की; कामान्—इच्छा से; तु—लेकिन; गुरून्—गुरुजनों को; इह—इस संसार में; एव—निश्चय ही; भुञ्जीय—भोगने के लिए बाध्य; भोगान्—भोग्य वस्तुएँ; रुधिर—रक्त से; प्रदिग्धान्—सनी हुई, रंजित।.

अनुवाद

ऐसे महापुरुषों को जो मेरे गुरु हैं, उन्हें मार कर जीने की अपेक्षा इस संसार में भीख माँग कर खाना अच्छा है | भले ही वे सांसारिक लाभ के इच्छुक हों, किन्तु हैं तो गुरुजन ही! यदि उनका वध होता है तो हमारे द्वारा भोग्य प्रत्येक वस्तु अनके रक्त से सनी होगी |

तात्पर्य

शास्त्रों के अनुसार ऐसा गुरु जो निंद्य कर्म में रत हो और जो विवेकशून्य हो, त्याज्य है | दुर्योधन से आर्थिक सहायता लेने के कारण भीष्म तथा द्रोण उसका पक्ष लेने के लिए बाध्य थे, यद्यपि केवल आर्थिक लाभ से ऐसा करना उनके लिए उचित न था | ऐसी दशा में वे आचार्यों का सम्मान खो बैठे थे | किन्तु अर्जुन सोचता है कि इतने पर भी वे उसके गुरुजन हैं, अतः उनका वध करके भौतिक लाभों का भोग करने का अर्थ होगा – रक्त से सने अवशेषों का भोग |