HI/BG 3.25

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 25

सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत ।
कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम् ॥२५॥

शब्दार्थ

सक्ता:—आसक्त; कर्मणि—नियत कर्मों में; अविद्वांस:—अज्ञानी; यथा—जिस तरह; कुर्वन्ति—करते हैं; भारत—हे भरतवंशी; कुर्यात्—करना चाहिए; विद्वान्—विद्वान; तथा—उसी तरह; असक्त:—अनासक्त; चिकीर्षु:—चाहते हुए भी, इच्छुक; लोक-सङ्ग्रहम्—सामान्य जन।

अनुवाद

जिस प्रकार अज्ञानी-जन फल की आसक्ति से कार्य करते हैं, उसी तरह विद्वान जनों को चाहिए कि वे लोगों को उचित पथ पर ले जाने के लिए अनासक्त रहकर कार्य करें |

तात्पर्य

एक कृष्णभावनाभावित मनुष्य तथा कृष्णभावनाहीन व्यक्ति में केवल इच्छाओं का भेद होता है | कृष्णभावनाभावित व्यक्ति कभी ऐसा कोई कार्य नहीं करता जो कृष्णभावनामृत के विकास में सहायक न हो | यहाँ तक कि वह उस अज्ञानी पुरुष की तरह कर्म कर सकता है जो भौतिक कार्यों में अत्यधिक आसक्त रहता है | किन्तु इनमें से एक ऐसे कार्य अपनी इन्द्रियतृप्ति के लिए करता है, जबकि दूसरा कृष्ण की तुष्टि के लिए | अतः कृष्णभावनाभावित व्यक्ति को चाहिए कि वह लोगों को यह प्रदर्शित करे कि किस तरह कार्य किया जाता है और किस तरह कर्मफलों को कृष्णभावनामृत कार्य में नियोजित किया जाता है |