HI/BG 3.34

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 34

इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ ।
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ ॥३४॥

शब्दार्थ

इन्द्रियस्य—इन्द्रिय का; इन्द्रियस्य अर्थे—इन्द्रियविषयों में; राग—आसक्ति; द्वेषौ—तथा विरक्ति; व्यवस्थितौ—नियमों के अधीन स्थित; तयो:—उनके; न—कभी नहीं; वशम्—नियन्त्रण में; आगच्छेत्—आना चाहिए; तौ—वे दोनों; हि—निश्चय ही; अस्य—उसका; परिपन्थिनौ—अवरोधक।

अनुवाद

प्रत्येक इन्द्रिय तथा उसके विषय से सम्बन्धित राग-द्वेष को व्यवस्थित करने के नियम होते हैं | मनुष्य को ऐसे राग तथा द्वेष के वशीभूत नहीं होना चाहिए क्योंकि ये आत्म-साक्षात्कार के मार्ग में अवरोधक हैं |

तात्पर्य

जो लोग कृष्णभावनाभावित हैं, वे स्वभाव से भौतिक इन्द्रियतृप्ति में रत होने में झिझकते हैं | किन्तु जिन लोगों की ऐसी भावना न हो उन्हें शास्त्रों के यम-नियमों का पालन करना चाहिए | अनियन्त्रित इन्द्रिय-भोग ही भौतिक बन्धन का कारण है, किन्तु जो शास्त्रों के यम-नियमों का पालन करता है, वह इन्द्रिय-विषयों में नहीं फँसता | उदाहरणार्थ, यौन-सुख बद्धजीव के लिए आवश्यक है और विवाह-सम्बन्ध के अन्तर्गत यौन-सुख की छूट दी जाती है | शास्त्रीय आदेशों के अनुसार अपनी पत्नी के अतिरिक्त अन्य स्त्री के साथ यौन-सम्बन्ध वर्जित है, अन्य सभी स्त्रियों को अपनी माता मानना चाहिए | किन्तु इन आदेशों क होते हुए भी मनुष्य अन्य स्त्रियों के साथ यौन-सम्बन्ध स्थापित करता है | इन प्रवृत्तियों को दमित करना होगा अन्यथा वे आत्म-साक्षात्कार के मार्ग में बाधक होंगी | जब तक यह भौतिक शरीर रहता है तब तक शरीर की आवश्यकताओं को यम-नियमों के अन्तर्गत पूर्ण करने की छूट दी जाती है | किन्तु फिर भी हमें ऐसी छूटों के नियन्त्रण पर विश्र्वास नहीं करना चाहिए | मनुष्य को अनासक्त रहकर यम-नियमों का पालन करना होता है, क्योंकि नियमों के अन्तर्गत इन्द्रियतृप्ति का अभ्यास भी उसे पथभ्रष्ट कर सकता है, जिस प्रकार राजमार्ग तक में दुर्घटना की संभावना बनी रहती है | भले ही इन मार्गों की कितनी ही सावधानी से देखभाल क्यों न की जाय, किन्तु इसकी कोई गारन्टी नहीं दे सकता कि सबसे सुरक्षित मार्ग पर भी कोई खतरा नहीं होगा | भौतिक संगति के कारण अत्यन्त दीर्घ काल से इन्द्रिय-सुख की भावना कार्य करती रही है | अतः नियमित इन्द्रिय-भोग के बावजूद भी च्युत होने की हर सम्भावना बनी रहती है, अतः सभी प्रकार के नियमित इन्द्रिय-भोग के लिए किसी भी आसक्ति से बचना चाहिए | लेकिन कृष्णभावनामृत ऐसा है कि इसके प्रति आसक्ति से या सदैव कृष्ण की प्रेमाभक्ति में कार्य करते रहने से सभी प्रकार के ऐन्द्रिय कार्यों से विरक्ति हो जाती है | अतः मनुष्य को चाहिए कि वह किसी भी अवस्था में कृष्णभावनामृत से विरक्त होने की चेष्टा न करे | समस्त प्रकार के इन्द्रिय-आसक्ति से विरक्ति का उद्देश्य अन्ततः कृष्णभावनामृत के पद पर आसीन होना है |