HI/BG 3.41

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 41

तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ ।
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम् ॥४१॥

शब्दार्थ

तस्मात्—अत:; त्वम्—तुम; इन्द्रियाणि—इन्द्रियों को; आदौ—प्रारम्भ में; नियम्य—नियमित करके; भरत-ऋषभ—हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ; पाह्रश्वमानम्—पाप के महान प्रतीक को; प्रजहि—दमन करो; हि—निश्चय ही; एनम्—इस; ज्ञान—ज्ञान; विज्ञान—तथा शुद्ध आत्मा के वैज्ञानिक ज्ञान का; नाशनम्—संहर्ता, विनाश करने वाला।

अनुवाद

इसलिए हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! प्रारम्भ में ही इन्द्रियों को वश में करके इस पाप का महान प्रतीक (काम) का दमन करो और ज्ञान तथा आत्म-साक्षात्कार के इस विनाशकर्ता का वध करो ।

तात्पर्य

भगवान् ने अर्जुन को प्रारम्भ से ही इन्द्रिय-संयम करने का उपदेश दिया जिससे वह सबसे पापी शत्रु काम का दमन कर सके जो आत्म-साक्षात्कार तथा आत्मज्ञान की उत्कंठा को विनष्ट करने वाला है । ज्ञान का अर्थ है आत्म तथा अनात्म के भेद का बोध अर्थात् यह ज्ञान कि आत्मा शरीर नहीं है । विज्ञान से आत्मा की स्वाभाविक स्थिति तथा परमात्मा के साथ उसके सम्बन्ध का विशिष्ट ज्ञान सूचित होता है । श्रीमद्भागवत में (२.९.३१) इसकी विवेचना इस प्रकार हुई है –

ज्ञानं परमगुह्यं मे यद्विज्ञानसमन्वितम् ।

सरहस्यं तदङगं च गृहाण गदितं मया ||

"आत्मा तथा परमात्मा का ज्ञान अत्यन्त गुह्य एवं रहस्यमय है, किन्तु जब स्वयं भगवान् द्वारा इसके विविध पक्षों की विवेचना की जाती है तो ऐसा ज्ञान तथा विज्ञान समझा जा सकता है ।" भगवद्गीता हमें आत्मा का सामान्य तथा विशिष्ट ज्ञान (ज्ञान तथा विज्ञान) प्रदान करती है । जीव भगवान् का भिन्न अंश हैं , अतः वे भगवान् की सेवा के लिए हैं । यह चेतना कृष्णभावनामृत कहलाती है । अतः मनुष्य को जीवन के प्रारम्भ से इस कृष्णभावनामृत को सीखना होता है, जिससे वह पूर्णतया कृष्णभावनाभावित होकर तदनुसार कर्म करे ।

काम ईश्र्वर-प्रेम का विकृत प्रतिबिम्ब है और प्रत्येक जीव के लिए स्वाभाविक है । किन्तु यदि किसी को प्रारम्भ से ही कृष्णभावनामृत की शिक्षा दी जाय तो प्राकृतिक ईश्र्वर-प्रेम काम के रूप में विकृत नहीं हो सकता । एक बार ईश्र्वर-प्रेम के काम रूप में विकृत हो जाने पर इसके मौलिक स्वरूप को पुनः प्राप्त कर पाना दुःसाध्य हो जाता है । फिर भी, कृष्णभावनामृत इतना शक्तिशाली है कि विलम्ब से प्रारम्भ करने वाला भी भक्ति के विधि-विधानों का पालन करके ईश्र्वरप्रेमी बन सकता है । अतः जीवन की किसी भी अवस्था में, या जब भी इसकी अनिवार्यता समझी जाय, मनुष्य कृष्णभावनामृत या भगवद्भक्ति के द्वारा इन्द्रियों को वश में करना प्रारम्भ कर सकता है और काम को भगवत्प्रेम में बदल सकता है , जो मानव जीवन की पूर्णता की चरम अवस्था है ।