HI/BG 6.5

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 5

उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् ।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥५॥

शब्दार्थ

उद्धरेत्—उद्धार करे; आत्मना—मन से; आत्मानम्—बद्धजीव को; न—कभी नहीं; आत्मानम्—बद्धजीव को; अवसादयेत्—पतन होने दे; आत्मा—मन; एव—निश्चय ही; हि—निस्सन्देह; आत्मन:—बद्धजीव का; बन्धु:—मित्र; आत्मा—मन; एव—निश्चय ही; रिपु:—शत्रु; आत्मन:—बद्धजीव का।

अनुवाद

मनुष्य को चाहिए कि अपने मन की सहायता से अपना उद्धार करे और अपने को नीचे न गिरने दे | यह मन बद्धजीव का मित्र भी है और शत्रु भी |

तात्पर्य

प्रसंग के अनुसार आत्मा शब्द का अर्थ शरीर, मन तथा आत्मा होता है | योगपद्धति में मन तथा आत्मा का विशेष महत्त्व है | चूँकि मन ही योगपद्धति का केन्द्रबिन्दु है, अतः इस प्रसंग में आत्मा का तात्पर्य मन होता है | योगपद्धति का उद्देश्य मन को रोकना तथा इन्द्रियविषयों के प्रति आसक्ति से उसे हटाना है | यहाँ पर इस बात पर बल दिया गया है कि मन को इस प्रकार प्रशिक्षित किया जाय कि वह बद्धजीव को अज्ञान के दलदल से निकाल सके | इस जगत् में मनुष्य मन तथा इन्द्रियों के द्वारा प्रभावित होता है | वास्तव में शुद्ध आत्मा इस संसार में इसीलिए फँसा हुआ है क्योंकि मन मिथ्या अहंकार में लगकर प्रकृति के ऊपर प्रभुत्व जताना चाहता है | अतः मन को इस प्रकार प्रशिक्षित करना चाहिए कि वह प्रकृति की तड़क-भड़क से आकृष्ट न हो और इस तरह बद्धजीव की रक्षा की जा सके | मनुष्य को इन्द्रियविषयों से आकृष्ट होकर अपने को पतित नहीं करना चाहिए | जो जितना ही इन्द्रियविषयों के प्रति आकृष्ट होता है वह उतना ही इस संसार में फँसता जाताहै | अपने को विरत करने का सर्वोत्कृष्ट साधन यही है कि मन को सदैव कृष्णभावनामृत में निरत रखा जाय | हि शब्द इस बात पर बल देने के लिए प्रयुक्त है अर्थात् इसे अवश्य करना चाहिए | अमृतबिन्दु उपनिषद् में (२) कहा भी गया है –

मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः|

बन्धाय विषयासंगो मुक्त्यै निर्विषयं मनः ||

मन ही मनुष्य के बन्धन और मोक्ष का भी कारण है | इन्द्रियविषयों में लीन मन बन्धन का कारण है और विषयों से विरक्त मन मोक्ष का कारण है | अतः जो मन निरन्तर कृष्णभावनामृत में लगा रहता है, वही परम मुक्ति का कारण है |