HI/BG 8.23

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 23

यत्र काले त्वनावृत्तिमावृत्तिं चैव योगिनः ।
प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ ॥२३॥

शब्दार्थ

यत्र—जिस; काले—समय में; तु—तथा; अनावृत्तिम्—वापस न आना; आवृत्तिम्—वापसी; च—भी; एव—निश्चय ही; योगिन:—विभिन्न प्रकार के योगी; प्रयाता:—प्रयाण करने वाले; यान्ति—प्राह्रश्वत करते हैं; तम्—उस; कालम्—काल को; वक्ष्यामि—कहूँगा; भरत-ऋषभ—हे भरतों में श्रेष्ठ!

अनुवाद

हे भरतश्रेष्ठ! अब मैं उन विभिन्न कालों को बताऊँगा, जिनमें इस संसार से प्रयाण करने के बाद योगी पुनः आता है अथवा नहीं आता |

तात्पर्य

परमेश्र्वर के अनन्य, पूर्ण शरणागत भक्तों को इसकी चिन्ता नहीं रहती कि वे कब और किस तरह शरीर को त्यागेंगे | वे सब कुछ कृष्ण पर छोड़ देते हैं और इस तरह सरलतापूर्वक, प्रसन्नता सहित भगवद्धाम जाते हैं | किन्तु जो अनन्य भक्त नहीं हैं और कर्मयोग, ज्ञानयोग तथा हठयोग जैसी आत्म-साक्षात्कार की विधियों पर आश्रित रहते हैं, उन्हें उपयुक्त समय में शरीर त्यागना होता है, जिससे वे आश्र्वस्त हो सकें कि इस जन्म-मृत्यु वाले संसार में उनको लौटना होगा या नहीं |

यदि योगी सिद्ध होता है तो वह इस जगत् से शरीर छोड़ने का समय तथा स्थान चुन सकता है | किन्तु यदि वह इतना पटु नहीं होता तो उसकी सफलता उसके अचानक शरीर त्याग के संयोग पर निर्भर करती है | भगवान् ने अगले श्लोक में ऐसे उचित अवसरों का वर्णन किया है कि कब मरने से कोई वापस नहीं आता | आचार्य बलदेव विद्याभूषण के अनुसार यहाँ पर संस्कृत के काल शब्द का प्रयोग काल के अधिष्ठाता देव के लिए हुआ है |