HI/BG 9.5

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 5

न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम् ।
भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः ॥५॥

शब्दार्थ

न—कभी नहीं; च—भी; मत्-स्थानि—मुझमें स्थित; भूतानि—सारी सृष्टि; पश्य—देखो; मे—मेरा; योगम् ऐश्वरम्—अचिन्त्य योगशक्ति; भूत-भृत्—समस्त जीवों का पालक; न—नहीं; च—भी; भूत-स्थ:—विराट अभिव्यक्ति में; मम—मेरा; आत्मा—स्व, आत्म; भूत-भावन:—समस्त अभिव्यक्तियों का स्रोत।

अनुवाद

तथापि मेरे द्वारा उत्पन्न सारी वस्तुएँ मुझमें स्थित नहीं रहतीं | जरा, मेरे योग-ऐश्र्वर्य को देखो! यद्यपि मैं समस्त जीवों का पालक (भर्ता) हूँ और सर्वत्र व्याप्त हूँ, लेकिन मैं इस विराट अभिव्यक्ति का अंश नहीं हूँ, मैं सृष्टि का कारणस्वरूप हूँ |

तात्पर्य

भगवान् का कथन है कि सब कुछ उन्हीं पर आश्रित है (मत्स्थानि सर्वभूतानि) | इसका अन्य अर्थ नहीं लगाना चाहिए | भगवान् जगत् के पालन तथा निर्वाह के लिए प्रत्यक्ष रूप से उत्तरदायी नहीं हैं | कभी-कभी हम एटलस (एक रोमन देवता) को अपने कंधों पर गोला उठाये देखते हैं, वह अत्यन्त थका लगता है और इस विशाल पृथ्वीलोक को धारण किये रहता है | हमें किसी ऐसे चित्र को मन में नहीं लाना चाहिए जिसमें कृष्ण का इस सृजित ब्रह्माण्ड को धारण किये हुए हों | उनका कहना है कि यद्यपि सारी वस्तुएँ उन पर टिकी हैं, किन्तु वे पृथक् रहते हैं | सारे लोक अन्तरिक्ष में तैर रहें हैं और यह अन्तरिक्ष परमेश्र्वर की शक्ति है | किन्तु वे अन्तरिक्ष से भिन्न हैं, वे पृथक् स्थित हैं | अतः भगवान् कहते हैं "यद्यपि ये सब रचित पदार्थ मेरी अचिन्त्य शक्ति पर टिके हैं, किन्तु भगवान् के रूप में मैं उनसे पृथक् हूँ |" यह भगवान् का अचिन्त्य ऐश्र्वर्य है |

वैदिककोश निरुक्ति में कहा गया है – युज्यतेऽनेन दुर्घटेषु कार्येषु– परमेश्र्वर अपनी शक्ति का प्रदर्शन करते हुए अचिन्त्य आश्चर्यजनक लीलाएँ कर रहे हैं | उनका व्यक्तित्व विभिन्न शक्तियों से पूर्ण है और उनका संकल्प स्वयं एक तथ्य है | भगवान् को इसी रूप में समझना चाहिए | हम कोई काम करना चाहते हैं, तो अनेक विघ्न आते हैं और कभी-कभी हम जो चाहते हैं वह नहीं कर पाते | किन्तु जब कृष्ण कोई कार्य करना चाहते हैं, तो सब कुछ इतनी पूर्णता से सम्पन्न हो जाता है कि कोई सोच नहीं पाता कि यह सब कैसे कुआ | भगवान् इसी तथ्य को समझाते हैं – यद्यपि वे समस्त सृष्टि के पालन तथा धारणकर्ता हैं, किन्तु वे इस सृष्टि का स्पर्श नहीं करते | केवल उनकी परम इच्छा से प्रत्येक वस्तु सृजन, धारण, पालन एवं संहार होता है | उनके मन और स्वयं उनमें कोई भेद नहीं है जैसा हमारे भौतिक मन में और स्वयं हम में भेद होता है, क्योंकि वे परमात्मा हैं | साथ ही वे प्रत्येक वस्तु में उपस्थित हैं, किन्तु सामान्य व्यक्ति यह नहीं समझ पाता कि वे साकार रूप में किस तरह उपस्थित हैं | वे भौतिक जगत् से भिन्न हैं तो भी प्रत्येक वस्तु उन्हीं पर आश्रित है | यहाँ पर इसे ही योगम् ऐश्र्वरम् अर्थात् भगवान् की योगशक्ति कहा गया है |