HI/Prabhupada 0307 -न केवल अपने मन को कृष्ण के बारे में सोचने पर स्थिर करना है, लेकिन कृष्ण के लिए काम भी करना है



Lecture -- Seattle, October 2, 1968

प्रभुपाद: तुम्हारा मन कहता है, " चलो हम उस नई संस्थान इस्कॉन सोसायटी में चलते हैं, " तो तुम्हारे पैर तुम्हे यहाँ ले अाए । तो मन ... सोचना, महसूस करना, कार्य करने की चाहत रखना, ये मन के कार्य हैं । तो मन सोचता है, महसूस करता है, और फिर काम करता है । तो तुम्हे न केवल अपने मन को कृष्ण के बारे में सोचने पर स्थिर करना है, लेकिन कृष्ण के लिए काम भी करना है, श्री कृष्ण के लिए महसूस भी करना है । यही पूर्ण ध्यान है । यही समाधि कहा जाता है । तुम्हारा मन बाहर नहीं जा सकता है । तुम्हें अपने मन को इस तरह से संलग्न करना है कि मन श्री कृष्ण के बारे में सोचेगा, श्री कृष्ण के लिए महसूस करेगा, कृष्ण के लिए काम करेगा । यही पूर्ण ध्यान है ।

युवक (२): अपनी आँखों का क्या करें? अपनी आँखें बंद करें ?

प्रभुपाद: हाँ, आंख इंद्रियों में से एक है । मन सामान्य इन्द्रिय है, और गवर्नर जनरल के तहत, विशेष आयुक्त या अधीनस्थ अधिकारी हैं । तो आंखें, हाथ, पैर, जीभ, दस इंद्रियॉ, वे मन के निर्देशन में काम कर रही हैं । तो मन की अभिव्यक्ति होती है, इंद्रियों के माध्यम से प्रकट होता है । इसलिए जब तक तुम अपनी इन्द्रियों को संलग्न नहीं करते हो उसी तरह जिस तरह तुम्हारा मन सोच रहा है, महसूस कर रहा है, तब तक कोई पूर्णता नहीं है । अशांति रहेगी । अगर तुम्हारा मन कृष्ण के बारे में सोच रहा है और तुम्हारी आँखें कुछ और देख रही हैं, विघटन या विरोधाभास होगा । इसलिए ... तुम्हे सब से पहले, श्री कृष्ण में अपने मन को संलग्न करना होगा, और फिर अन्य सभी इंद्रियॉ कृष्ण की सेवा में लगाई जा सकती हैं । यही भक्ति है ।

सर्वोपाधि विनिर्मुक्तम
तत परत्वेन निर्मलम
ऋषिकेण ऋषिकेश
सेवनम भक्तिर उच्यते
(चैतन्य चरितामृत मध्य १९.१७०)

ऋषिक, ऋषिक का मतलब है इन्द्रियॉ । जब तुम अपनेी इन्द्रियॉ को इन्द्रियों के मालिक की सेवा में लगते हो, कृष्ण को ऋषिकेश कहा जाता है या इंद्रियों के मालिक । इन्द्रियों के मालिक का मतलब है, समझने की कोशिश करो । जैसे इस हाथ की तरह । हाथ बहुत अच्छी तरह से काम कर रहा है, लेकिन अगर यह हाथ लकवाग्रस्त हो जाता है या कृष्ण शक्ति को वापस ले लेते हैं, तो तुम्हारा हाथ बेकार है । तुम इसे ठीक नहीं कर सकते हो । इसलिए तुम अपने हाथ के मालिक नहीं हो । तुम गलत सोच रहे हो कि "मैं अपने हाथ का मालिक हूँ ।" लेकिन वास्तव में, तुम मालिक नहीं हो । मालिक कृष्ण हैं । इसलिए जब तुम्हारी इन्द्रियॉ, इन्द्रियों के मालिक की सेवा में लगती हैं, यह भक्ति कहा जाता है, भक्तिमय सेवा ।

अभी इन्द्रयॉ मेरे उपाधि में संलग्न हैं । मैं सोच रहा हूँ कि "यह शरीर मेरी पत्नी या मेरे इसके या उसके की संतुष्टि के लिए है, " ऐसी बहुत सी बातें, "मेरा देश, मेरा समाज ।" यही पदवी है । लेकिन जब तुम आध्यात्मिक मंच पर आते हो, तुम समझ जाते हो कि "मैं इस परम का अभिन्न अंग हूँ ।" इसलिए मेरी गतिविधियॉ परम को संतुष्ट करने के लिए होनी चाहिए ।" यही भक्ति कहा जाता है । सर्वपाधि विनिर्मुक्तम (चैतन्य चरितामृत मध्य १९.१७०), सब पद से मुक्त होना । जब तुम्हारी इन्द्रियॉ शुद्ध हो जाती हैं, और जब वे इंद्रियॉ इंद्रियों के मालिक की सेवा में लगती हैं, यही कृष्ण भावनामृत में संलग्न होना कहा जाता है ।

तुम्हारा प्रश्न क्या है? तो ध्यान, मन की संलग्नता, उस तरह से होनी चाहिए । तो यह बिल्कुल सही होगा । अन्यथा, मन तो चंचल है और बदलता रहता है कि अगर तुम एक निश्चित सेवा पर इसे नहीं लगाते हो ... संलग्न मतलब ... मन कुछ करना चाहता है क्योंकि मन का लक्षण है सोचना, महसूस करना अौर काम करने की चाहत रखना । तो तुम्हे अपने मन को प्रशिक्षित करना होगा इस तरह से कि तुम कृष्ण के बारे में सोचोगे, तुम कृष्ण के लिए महसूस करोगे, तुम कृष्ण के लिए काम करोगे । फिर यह समाधि है । यह एकदम सही ध्यान है ।