HI/Prabhupada 0323 - हंसों के एक समाज का निर्माण कर रहे हैं, कौवों का नहीं



Lecture on SB 3.25.12 -- Bombay, November 12, 1974

तो यह भौतिक जीवन, पवर्ग है । अगर तुम इसे अमान्य ठहराअो, तो वह अपवर्ग कहा जाता है । तो यहाँ उसे अपवर्ग वर्धनम कहा गया है, कैसे मुक्ति में रुचि बढ़ाऍ । लोग इतने सुस्त हो गए हैं, वे मुक्ति का मतलब क्या है यह समझते नहीं हैं । वे समझते नहीं हैं । बस जानवर की तरह । वे ....अगर एक पशु को सूचित किया जाता है कि "मुक्ति है" तो वह क्या समझेगा ? वह समझ नहीं पाएगा । यह उसके लिए संभव नहीं है । इसी प्रकार, वर्तमान क्षण में, मानव समाज वास्तव में जानवरों की तरह बन गया है । उन्हे पता नहीं है अपवर्ग या मुक्ति का अर्थ क्या है । वे नहीं जानते हैं । लेकिन समय था जब लोग समझते थे की यह मानव जीवन अपवर्ग के लिए है | अपवर्ग प,फ,ब,भ,म का चक्कर बंद करना । यही अपवर्ग-वर्धनम कहा जाता है । तो देवहुति द्वारा किए गए सवाल, और जवाब, जो कि कपिलदेव द्वारा दिया जाएँगे, यही अपवर्ग वर्धनम है । ये ज़रूरी है । यही पूरे वेदों की शिक्षा है ।

तस्यैव हेतोः प्रयतेत कविदः । अपवर्ग के लिए हर कोई कोशिश करता था । हर किसी को अपनी तरफ से पूरी कोशिश करनी चाहिए । "अौर मेरे पालन का क्या?" पालन के लिए, शास्त्र ज़ोर नहीं देता है, कि "तुम पालन के लिए प्रयास करो ।" शास्त्र कहता है, "यह आ जाएगा । यह पहले से ही है । यह आ जाएगा ।" लेकिन हमें ऐसा कोई विश्वास नहीं है कि, "भगवान नें दिया है ..., जानवरों को, पक्षियों को, पशुओं को भोजन दिया है, पेड़ों को, हर किसी को, और क्यों वह मुझे नहीं देगा? मुझे अपवर्ग के लिए अपना समय संलग्न करने दो ।" उन्हें कोई विश्वास नहीं है । उनकी कोई ऐसी शिक्षा नहीं है । इसलिए अच्छा संग आवश्यक है, कौए का संघ नहीं, लेकिन हंस केा संग । तब यह समझ आती है ।

तो यह कृष्ण भावनामृत आंदोलन इसका मतलब है कि हम हंसों के एक समाज का निर्माण कर रहे हैं, नहीं की कौवों का | कौवे का नहीं । कौवों को दिलचस्पी नहीं हैं । वे रुचि रखते हैं फेंके हुए में, मेरे कहने का मतलब है, कचरे में । वे रुचि रखते हैं । पुन: पुन: चर्वित-चर्वणानम (श्रीमद भागवतम ७.५.३०) | पुन: पुन: चर्वित-चर्वणानम । वैसे ही जैसे हम दूर फेंकते हैं ... खाने के बाद, हम पत्ता फेंकते हैं । वहाँ खाद्य पदार्थों के कुछ अवशेष हैं, और कौवे आते हैं, कुत्ते आते हैं । वे रुचि रखते हैं । एक समझदार आदमी वहाँ नहीं जाएगा । लेकिन ये कौवे और कुत्ते वहाँ जाऍगे । तो यह दुनिया ऐसी ही है । पुन: पुन: चर्वित-चर्वणानम (श्रीमद भागवतम ७.५.३०) | चबाये हुए को चबाना ।

जैसे तुम एक गन्ने को चबाते हो और सड़क पर फेंक देते हो । लेकिन अगर कोई अाता है उसे चबाने के लिए, तो वह बेवकूफ है । उसे पता होना चाहिए, "रस निकल गया है गन्ने से । इसे चबाके मुझे क्या मिलेगा?" लेकिन एसे जानवर हैं । वे फिर से चबाना चाहते हैं । तो हमारा भौतिक समाज का मतलब है चबाये हुए को चबाना । एक पिता अपने बेटे को शिक्षा देता है आजीविका के लिए कमाई के लिए, उसका विवाह करता है, और उसे ठीक करता है, लेकिन वह जानता है कि "यह काम, पैसा कमाना और शादी करना, बच्चों पैदा करना, मैंने भी किया है, लेकिन मैं संतुष्ट नहीं हूँ । तो क्यों मैं इस काम में अपने बेटे को उलझा रहा हूँ? "इसे चबाए हुए को चबाना कहते हैं । एक ही चीज़ को चबाना । "मैं अपने इस काम से संतुष्ट नहीं हुअा हूँ, लेकिन क्यों मैं अपने बेटे को भी उलझाा रहा हूँ? " असली पिता वह है जो अपने बेटे को अनुमति नहीं देता है चबाए हुए को चबाने के लिए । वह असली पिता है ।

पिता न स स्याज जननी न स स्यात, न मोचयेद समुपेत-मृत्युम । यही असली गर्भनिरोधक है । एक पिता, एक आदमी को एक पिता बनने की इच्छा नहीं करनी चाहिए, एक महिला को मां बनने की इच्छा नहीं करनी चाहिए, जब तक वे मृत्यु के आसन्न चंगुल से बच्चों को बचाने के लिए समर्थ नहीं हैं । यही पिता और माता का कर्तव्य है ।