HI/Prabhupada 0468 - बस पूछताछ करो और तैयार रहो कि कैसे श्री कृष्ण की सेवा करनी है



Lecture on SB 7.9.9 -- Mayapur, March 1, 1977

प्रद्युम्न: अनुवाद: "प्रहलाद महाराज अागे कहते हैं: एक व्यक्ति के पास धन, कुलीन परिवार, सौंदर्य, तपस्या हो सकते है, शिक्षा, संवेदी विशेषज्ञता, चमक, प्रभाव, शारीरिक शक्ति, परिश्रम, बद्धिमत्ता और रहस्यवादी योग शक्ति हो सकते है, लेकिन मुझे लगता है कि इन सभी योग्यताओं से हम पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान को संतुष्ट नहीं कर सकते हैं । लेकिन, बस भक्ति सेवा से प्रभु को संतुष्ट कर सकते हैं । गजेंद्र नें यह किया है, और इस प्रकार भगवान उससे संतुष्ट थे ।"

प्रभुपाद:

मन्ये धनाभिजन-रूप-श्रुतौजस-तेज:
प्रभाव-बल-पौरुष-बुद्धि-योगा:
नाराधनाय हि भवन्ति परस्य पुंसो
भक्त्या तुतोश भगवान गज-यूथ-पाय
(श्रीमद भागवतम ७.९.९)

तो यह भौतिक संपत्ति है । (एक तरफ:) यह काम नहीं कर रहा? (माइक्रोफोन को धक्का मारते हुए) हम्म? धन... कोई भी इन सभी भौतिक संपत्तियों से कृष्ण को अाकर्षित नहीं कर सकता । ये भौतिक संपत्ति हैं: पैसा, फिर जनशक्ति, सौंदर्य, शिक्षा, तपस्या, रहस्यवादी शक्ति और सब । ऐसी बहुत सी बातें हैं । वे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के करीब पहुंचने में सक्षम नहीं हैं । कृष्ण व्यक्तिगत रूप से कहते हैं, भक्त्या माम अभिजानाति (भ.गी. १८.५५) | वे नहीं कहते हैं कि यह सब भौतिक संपत्ति, की "अगर कोई बहुत अमीर आदमी है, वह मेरी कृपा पा सकता है ।" नहीं । कृष्ण मेरे जैसे एक गरीब आदमी नहीं हैं, कि अगर कोई मुझे कुछ पैसे देता है, तो मैं लाभान्वित हो जाता हूँ । वह आत्मनिर्भर हैं, अात्माराम । तो किसी और से कोई भी मदद की कोई जरूरत नहीं है । वे पूरी तरह से संतुष्ट हैं, अात्माराम । केवल भक्ति, प्रेम, यह आवश्यक है । भक्ति का मतलब है कृष्ण की सेवा करना । यह किसी भी हेतु के बिना है । अहैतुकि अप्रतिहता । वह भक्ति, विशुद्ध । अन्याभिलाशिता-शून्यम ज्ञान-कर्मादि-अनावृतम ([[Vanisource:CC Madhya 19.167|चैतन्य चरितामृत मध्य १९.१६७), भक्तिरसामृतसिन्धु १.१.११) | हर जगह शास्त्र का यह कथन है, कि भक्ति विशुद्ध होनी चाहिए ।

अन्याभिलाशिता-शून्यम
ज्ञान-कर्मादि-अनावृतम
आनुकूल्येन कृष्णानु-शीलनम
भक्तिर उत्तमा
(भक्तिरसामृतसिन्धु १.१.११)
सर्वोपाधि-विनिर्मुक्तम
तत परतवेन निर्मलम
ऋषिकेण ऋषिकेश
सेवनम भक्तिर उच्यते
(चैतन्य चरितामृत मध्य १९.१७०)

बहुत सी अन्य परिभाषा है । और अगर हमारे पास भक्ति है, कृष्ण के लिए प्यार, तो फिर हमें बहुत पैसे या ताकत या शिक्षा या तपस्या की आवश्यकता नहीं है । ऐसा कुछ नहीं है । कृष्ण कहते हैं, पत्रम पुष्पम फलम तोयम यो मे भक्त्या प्रयच्छति (भ.गी. ९.२६) | उन्हे हम से कुछ भी नहीं चाहिए, लेकिन वे चाहते हैं कि हर कोई, क्योंकि वह कृष्ण का अभिन्न अंग है, वे चाहते हैं कि हर कोई उनका आज्ञाकारी हो, हर कोई उनसे प्यार करे । यही उनकी आकांक्षा है ।

जैसे पिता बहुत अमीर आदमी है । उन्हे अपने बेटे से कोई मदद की आवश्यकता नहीं है, लेकिन उनकी आकांक्षा है कि उनका बेटा आज्ञाकारी और उनसे प्रेम करता हो । यही उनकी संतुष्टि है । यही पूरी स्थिति है । कृष्ण नें बनाया है ... एको बहू श्याम । हम विभिन्नांश हैं - ममैवांशो जीव-भूत: (भ.गी. १५.७) - हम में से हर एक अभिन्न अंग हैं, कृष्ण के । तो हर किसी का कुछ कर्तव्य है । कृष्ण नें हमें बनाया है, कुछ उम्मीद के साथ की कुछ होगा, हमारे द्वारा कृष्ण की संतुष्टि के लिए । यही भक्ति है । तो यह, हमारा अवसर है, मनुष्य जीवन के रूप में प्राप्त हुअा है । हमें अपना मूल्यवान समय बर्बाद नहीं करना चाहिए किसी भी अन्य व्यवसाय या कार्य में । बस पृच्छा करो और तैयार रहो कि कैसे श्री कृष्ण की सेवा करनी है ।

आनुकूल्येन कृष्णानुशील । अनुकूल । तुम्हारी संतुष्टि नहीं लेकिन कृष्ण की संतुष्टि । यही अनुकूल कहा जाता है । आनुकूलयेन कृष्णानुशील (चैतन्य चरितामृत मध्य १९.१६७) | और अनुशीलनम का मतलब है, यह नहीं की, "समाधि में मैं ध्यान में हूँ ।" यह भी है ... कुछ न करने से तो यह बेहतर है, लेकिन असली भक्ति सेवा है कर्म । एक सक्रियता होनी चाहिए, और सबसे अच्छा कार्य है पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की महिमा का प्रचार करना । यही सबसे अच्छा कर्म है । न च तस्मान मनुष्येशु कश्चिन मे प्रिय-कृत्तम: (भ.गी. १८.६९) ।