HI/Prabhupada 0544 - हम विशेष रूप से भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुर के मिशन पर जोर देते हैं



His Divine Grace Srila Bhaktisiddhanta Sarasvati Gosvami Prabhupada's Appearance Day, Lecture -- Mayapur, February 21, 1976

प्रभुपाद: आज हमारे पूर्ववर्ती आध्यात्मिक गुरु का शुभ दिन है, ओम् विष्णुपाद परमहंस परिव्रजाकाचार्य अष्टोत्तरशत श्रीमद भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुर प्रभुपाद । श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुर का मिशन... उनके जीवन के अलावा, हम विशेष रूप से भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुर के मिशन पर ज़ोर देते हैं । यह जगह, मायापुर, पूर्व में मियाँपुर के रूप से जाना जाता था । ज्यादातर यहाँ मुसलमानों का निवास है । किसी न किसी तरह से यह मायापुर से मियाँपुर कर दिया गया । अभी भी, लोग ज्यादा संदिग्ध हैं कि श्री चैतन्य महाप्रभु का जन्म स्थल कहाँ है । और भक्तिविनोद ठाकुर वास्तविक जगह पता लगाने के लिए शोध कर रहे थे । तो जगन्नाथ दास बाबाजी महाराज के निर्देशन में, इस वर्तमान योगपीठ को श्री चैतन्य महाप्रभु का जन्म स्थल माना गया है ।

तो शुरुआत में भक्तिविनोद ठाकुर इस जगह को भव्यता के साथ विकसित करना चाहते थे, श्री चैतन्य महाप्रभु के पवित्र नाम के उपयुक्त । तो उन्होंने मायापुर के विकास का यह आंदोलन शुरू किया । वे खत्म नहीं कर सके, तो यह भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुर को सौंप दिया गया था । तो उनके प्रयास के तहत, उनके शिष्यों की सहायता से, यह जगह धीरे-धीरे विकसित हो रहा है, और हमारा प्रयास भी इस जगह को विकसित करना है । इसलिए हमने इस मंदिर का नाम मायापुर चंद्रोदय रखा है । हम इस जगह को अच्छी तरह से विकसित करने के लिए बहुत महत्वाकांक्षी हैं, और सौभाग्य से हम अब विदेशी देशों के साथ जुड़े हुए हैं, विशेष रूप से अमेरिकियों के साथ । भक्तिविनोद ठाकुर की महान इच्छा थी की अमेरिकी यहाँ अाएँ, और इस जगह को विकसित करें, और वे भारतीयों के साथ कीर्तन और नृत्य करें । तो उनका सपना अौर साथ ही चैतन्य महाप्रभु की भविष्यवाणी,

पृथ्विते अाछे यत नगरादि ग्राम
सर्वत्र प्रचार हइबे मोर नाम
(चैतन्य भागवत अन्त्य खंड ४.१२६) ।

तो चैतन्य महाप्रभु की इच्छा थी की सभी भारतीय भाग लें ।

भारत भुमिते मनुष्य-जन्म हइल यार
जन्म सार्थक करि कर पर-उपकार
(चैतन्य चरितामृत अादि ९.४१)

यह चैतन्य महाप्रभु का मिशन है, पर-उपकार । पर-उपकार का मतलब है दूसरों के लिए अच्छा करना । बेशक, मानव समाज में कई अलग-अलग शाखाएँ हैं दूसरों के लिए अच्छा करने के लिए... कल्याण समाज... लेकिन अधिक या कम... क्यों अधिक या कम ? लगभग पूरी तरह से, वे सोचते हैं कि हम यह शरीर हैं, और शरीर के लिए कुछ अच्छा करना कल्याणकारी कार्य है । लेकिन वास्तव में यह कल्याणकारी कार्य नहीं है क्योंकि भगवद गीता में से हम बहुत स्पष्ट रूप से समझ सकते हैं, अन्तवन्त इमे देह नित्यश्योक्त: शरीरिण: । यह शरीर अंतवत है । अन्त का मतलब है यह खत्म हो जाएगा । प्रत्येक व्यक्ति जानता है कि उसका शरीर स्थायी नहीं है, यह खत्म हो जाएगा । कुछ भी भौतिक, भूत्वा भूत्वा प्रलियते (भ.गी. ८.१९) - उसके जन्म की तारीख है, यह कुछ समय के लिए रहता है, और फिर यह नष्ट हो जाता है । तो आध्यात्मिक शिक्षा की समझ शुरू होती है, "मैं यह शरीर नहीं हूँ ।" यह आध्यात्मिक शिक्षा है ।

भगवद गीता में प्रथम शिक्षा अर्जुन को कृष्ण द्वारा दी गई, वो यह है, कि हम यह शरीर नहीं हैं । क्योंकि अर्जुन शारीरिक मंच से बोल रहे थे, इसलिए कृष्ण नें उन्हें ड़ाटा, कि अशोच्यान अन्वशोचस त्वम प्रज्ञा-वादांश च भाषसे (भ.गी. २.११) "अर्जुन, तुम एक बहुत पढ़े लिखे आदमी की तरह बात कर रहे हो, लेकिन तुम इस विषय पर विलाप कर रहे हो जिस पर कोई पढ़ा-लिखा आदमी अफसोस नहीं जताता है ।" अशोच्यान अन्वशोचस त्वम । तो शरीर के विषय में इस तरह के कल्याणकारी कार्य, अस्पताल और कई अन्य चीजों की तरह, वे निस्संदेह अच्छे हैं, लेकिन अंतिम लक्ष्य आत्मा का हित देखना है । यही अंतिम लक्ष्य है । यही पूरी वैदिक शिक्षा है । और कृष्ण इस मुद्दे से शुरू करते हैं । देहिनो अस्मिन यथा देहे कौमारम यौवनम जरा (भ.गी. २.१३) ।