HI/Prabhupada 0682 - भगवान मेरे अाज्ञापालक नही हैं



Lecture on BG 6.30-34 -- Los Angeles, February 19, 1969

विष्णुजन: "अात्मसाक्षात्कार के उपर कृष्णभावनामृत की इस अवस्था में भक्त कृष्ण से एकरूप हो जाता है, इस रूप में कि उसके लिए कृष्ण ही सब कुछ हो जाते हैं, और भक्त प्रेममय कृष्ण से पूरित हो उठता है । तब भगवान अौर भक्त के बीच अन्तरंग सम्बन्ध स्थापित हो जाता है । उस अवस्था में जीव को विनष्ट नहीं किया जा सकता, अौर न भगवान भक्त की दृष्टि से अोझल होते हैं ।"

प्रभुपाद: वे कैसे अोझल हो सकते हैं ? वह हर वस्तु में कृष्ण को और कृष्ण में हर वस्तु को देखता है । सब कुछ कृष्ण में, अौर कृष्ण में सब कुछ । तो फिर उससे कृष्ण कैसे अोझल हो सकते हैं ? हां ।

विष्णुजन: "कृष्ण में विलीन होना अाध्यात्मिक विनाश है । भक्त कभी भी ऐसी जोख़िम नहीं उठाता । ब्रह्म-संहिता में कहा गया है: 'मैं अादि भगवान गोविंद की पूजा करता हूँ, जिनका दर्शन भक्तगण प्रेमरूपी अंजन लगे नेत्रों से करते हैं । वे भक्त के हृदय में स्थित श्यामसुन्दर रूप में देखे जाते हैं ।"

प्रभुपाद: श्यामसुन्दर, यह श्यामसुन्दर हैं, वह कर्तमसि । श्यामसुन्दर ।

प्रेमांजन-च्छुरित-भक्ति-विलोचनेन
संत: सदैव हृदयेषु विलोकयन्ति
यम् श्यामसुन्दरम अचिन्त्य गुण स्वरूपम
गोविन्दम अादि पुरुषम तम अहम भजामि
(ब्रह्मसंहिता ५.३८) |

तो जिसने प्रेम विकसित किया है कृष्ण के लिए, वह श्यामसुन्दर को देखता है, कर्तमसि, हमेशा अपने हृदय में । यही योग की पूर्णता है । कर्तमसि, मैंने वह नाम दिया है, अवश्य । वे श्यामसुन्दर हैं, हॉ । ठीक है ? अगला पैराग्राफ ।

विष्णुजन: "इस अवस्था में, न तो भगवान कृष्ण अपने भक्त की दृष्टि से अोझल होते हैं, अौर न भक्त ही उनकी दृष्टि से अोझल हो पाता है । यही बात योगी के लिए भी सत्य है क्योंकि वह अपने हृदय में परमात्मा रूप में भगवान का दर्शन करता रहता है । एसा योगी शुद्ध भक्त बन जाता है अौर अपने अंदर भगवान को देखे बिना एक क्षण भी नही रह सकता ।"

प्रभुपाद: बस । यही भगवान को देखने की प्रक्रिया है । (हंसते हुए) अन्यथा, भगवान मेरे अाज्ञापालक नही हैं, "आईए और देखिए ।" तुम्हे योग्य बनना होगा कि कैसे भगवान का दर्शन पाऍ, हर पल, हर जगह । और यह योग्यता सरल है । यह बहुत मुश्किल नहीं है ।

विष्णुजन: "योगी जो जानता है कि मैं अौर... जो योगी अपने आप को तथा परमात्मा को अभिन्न जानते हुए, परमात्मा की भक्तिपूर्वक सेवा करता है, वह हर प्रकार से मुझमें सदैव स्थित रहता है ।"

प्रभुपाद: हम्म । तात्पर्य है, अागे पढो ।

विष्णुजन: तात्पर्य: "जो योगी परमात्मा का ध्यान करता है, वह अपने अन्त:करण में कृष्ण के पूर्णरूप में चतुर्भुज विष्णु का दर्शन करता है - शंख, चक्र, गदा तथा कमलपुष्प धारण किये ।"

प्रभुपाद: यह तस्वीर, विष्णु की तस्वीर । यही योगी की एकाग्रता का उद्देश्य है । यही वास्तविक योग है । और यह विष्णु अभिव्यक्ति कृष्ण का पूर्ण रूप है । ब्रह्म-संहिता में यह कहा जाता है कि

य: कारणार्णव -जले भजति स्म योग
निद्राम अनन्त जगद अंड सरोम कूप:
विष्णुर महान स इह यस्य कला विशेषो
गोवन्दम अादि पुरुषम तम अहम भजामि
(ब्रह्मसंहिता ५.४७)

"मैं अादि भगवान गोविंद की पूजा करता हूँ ।" गोविन्दम आदि- पुरुषम | पुरुषम का मतलब है भगवान पुरुष हैं, भोक्ता, आदि, मूल हैं । गोवन्दम अादि पुरुषम तम अहम भजामि । और कौन है वे गोविंद ? जिनका केवल एक पूर्ण भाग महा-विष्णु हैं । और महा-विष्णु का कार्य क्या है ?

यस्यैक निश्वसित काल अथावलम्ब्य जीवंति लोम विलजा जगद अंड नाथा:
(ब्रह्मसंहिता ५.४८) |

हर ब्रह्मांड में एक प्रमुख जीव हैं जो ब्रह्मा कहलाए जाते हैं | ब्रह्मा प्रत्येक ब्रह्माण्ड में मूल व्यक्ति हैं । इसलिए ब्रह्मा का जीवन, या एक ब्रह्मांड का जीवन, केवल महा-विष्णु की सांस लेने की अवधि पर विद्यमान है । महा-विष्णु कारण महासागर में लेटे हैं अौर जब वे साँस छोडते हैं, लाखों ब्रह्मांड बुलबुले के रूप में आ रहे हैं और वे फिर से विकसित हो रहे हैं । अौर जब वे साँस अंदर लेते हैं लाखों ब्रह्मांड उनके भीतर जा रहे हैं । तो यह इस भौतिक दुनिया की स्थिति है । यह बाहर आ रहा है और फिर से अंदर जा रहा है । भूत्वा भूत्वा प्रलीयते (भ.गी. ८.१९) । भगवद-गीता में यह भी यह कहा गया है कि ये भौतिक ब्रह्मांड बन रहे हैं एक निश्चित अवधि में और फिर विनष्ट हो रहे हैं । अब यह रचना और विनाश महा विष्णु के श्वास छोड़ने अौर खींचने पर निर्भर करता है । कल्पना करो उस महा-विष्णु की क्षमता क्या है ।

लेकिन वह महा-विष्णु, यहाँ कहा गया है: यस्यैक निश्वसित काल अथावलम्ब्य जीवंति लोम विलजा जगद अंड नाथा: विष्णुर महान स इह यस्य कला विशेष: (ब्रह्मसंहिता ५.४८) | यह महा-विष्णु कृष्ण के पूर्ण भाग के पूर्ण भाग हैं । कृष्ण मूल हैं । गोविन्दम आदि- पुरुषम तम अहम भजामि । तो यह महा-विष्णु फिर प्रत्येक ब्रह्माण्ड में प्रवेश करते हैं गर्भोदकशायी विष्णु के रूप में । और गर्भोदकशायी विष्णु से क्षीरोदकशायी विष्णु हैं । यही क्षीरोदकशायी विष्णु हर जीव के हृदय में प्रवेश कर रहे हैं ।

इस तरह विष्णु अभिव्यक्ति सारी सृष्टि में है । तो योगी का ध्यान इस विष्णु रूप पर, यहां विस्तार से बताया गया है । की विष्णु, जो सर्वव्यापी हैं । जो हैं ईश्वर: सर्व भूतानाम हृदेशे अर्जुन तिष्ठति (भ.गी. १८.६१) | भगवद-गीता में तुम पाअोगे, कि महा-विष्णु, क्षीरोदकशायी विष्णु, हर किसी के हृदय में बैठे हैं । अब योगी को पता लगाना है कि वे कहा बैठे हैं, और वहाँ अपने मन को केंद्रित करना है । यही योग की प्रक्रिया है। अागे पढो । "योगी को यह जानना चाहिए," अागे पढो ।

विष्णुजन: "योगी को यह जानना चाहिए कि विष्णु कृष्ण से भिन्न नहीं है ।"

प्रभुपाद: हाँ ।