HI/Prabhupada 0702 - मैं आत्मा हूँ, शाश्वत हूँ। अब मैं पदार्थों से दूषित हूँ, इसलिए मैं भुगत रहा हूँ



Lecture on BG 6.46-47 -- Los Angeles, February 21, 1969

प्रभुपाद: हाँ?

शीलावती: प्रभुपाद, आपने कहा कि जब तक कोई यौन जीवन में व्यस्त है वह एक योगी नहीं बन सकता है ।

प्रभुपाद: हाँ ।

शीलावती: लकिन फिर भी उस दिन अाप गृहस्थ जीवो के गुणों का गुणगान कर रहे थे, और अापने कहा था, और आपने कुछ महान गृहस्थ अाचार्यों का नाम लिया और आप ने कहा...

प्रभुपाद: हाँ, यह भक्ति-योग है । साधारण योग प्रणाली में, जैसे इस अध्याय में समझाया जाएगा, व्यक्ति को सख्ती से ब्रह्मचर्य जीवन का अनुसरण करना चाहिए । लेकिन भक्ति-योग प्रणाली में पूरा विचार यह है कि तुम्हे कृष्ण में अपने मन को स्थिर करना है । तो जो कुछ भी स्थिति हो... गृहस्थ जीवन का मतलब नहीं है यौन भोग में लिप्त होना । एक गृहस्थ को पत्नी हो सकती है, यौन जीवन हो सकता है, लेकिन यह केवल बच्चे पैदा करने के लिए है, बस । एक गृहस्थ का मतलब नहीं है उसे वेश्यावृत्ति को वैध करने के लिए लाइसेंस मिल गया है । वो गृहस्थ नहीं है । गृहस्थ यौन जीवन रख सकता है केवल अच्छा बच्चा पैदा करने के लिए, बस, और अधिक नहीं । यही गृहस्थ जीवन है; पूरी तरह से नियंत्रित ।

गृहस्थ का यह मतलब नहीं है कि जब भी उसे यह मशीन मिला है अौर वह इसका इस्तेमाल कर सकता है । नहीं । गृहस्थ, पति और पत्नी, दोनों कृष्ण भावनाभावित, कृष्ण भावनाभावित कार्योमें लगे हुए हैं, लेकिन जब उन्हे एक बच्चे की आवश्यकता होती है, कृष्ण भावनाभावित, बस । वह भी स्वैच्छिक गर्भनिरोधक विधि है । एक या दो या तीन बच्चे, बस, अधिक नहीं । तो गृहस्थ जीवन मतलब नहीं है यौन जीवन किसी भी प्रतिबंध के बिना । लेकिन आध्यात्मिक जीवन के लिए... जो आध्यात्मिक जीवन में आगे बढ़ना चाहता है, या तो तुम इस भक्ति-योग प्रणाली को अपनाअो, या इस अष्टांग-योग प्रणाली को या ज्ञानयोग प्रणाली को, अप्रतिबंधित यौन भोग कहीं नहीं है ।

यौन भोग का मतलब है तुम्हे फिर से वापस आना होगा । अगर तुम इन्द्रियों का आनंद लेने का प्रयास करते हो, यही भौतिकवादी जीवन है। भौतिकवादी जीवन यह है की मुझे अच्छी इन्द्रिया मिली है, मुझे पूरी हद तक इनका आनंद लेने दो । यही भौतिकवादी जीवन है । बस बिल्लियों, कुत्तों, और सूअर की तरह । सूअर, जब भी वे यौन इच्छुक होते हैं, वे परवाह नहीं करते हैं कि क्या यह उसकी मां या बहन या यह या वह है । समझे ?

यही श्रीमद-भागवतम में कहा गया है: नायम देहो देह भाजाम नृलोके कष्टान कामान अरहते विड-भुजाम ये (श्रीमद भागवतम ५.५.१) | विड बुजाम । विड भुजाम का मतलब है, वित का मतलब मल, और भुजाम मतलब खाना । तो मल-भक्षक की इन्द्रिय संतुष्टि इस मानव जीवन के लिए नहीं है । म-भक्षक का मतलब है यह सूअर । सूअर की इन्द्रिय संतुष्टि जीवन के इस मानव रूप के लिए नहीं है । प्रतिबंध । इसलिए मनुष्य जीवन में शादी की व्यवस्था है । क्यूँ ? विवाह और वेश्यावृत्ति क्या है ? विवाह प्रणाली का मतलब है सीमित यौन जीवन । विवाह प्रणाली का मतलब यह नहीं होता है कि तुम्हारी एक पत्नी है, आह - किसी भी भुगतान के बिना तुम्हे अप्रतिबंधित यौन जीवन मिला है । नहीं, यह शादी नहीं है । विवाह का मतलब है अपने यौन जीवन को प्रतिबंधित करना । वह यौन जीवन के लिए शिकार करेगा यहॉ अौर वहॉ ? नहीं, तुम ऐसा नहीं कर सकते । यहाँ तुम्हारी पत्नी है, और वह केवल बच्चे के लिए है । यह प्रतिबंध है ।

चार बातें हैं: लोके व्यवायामिष मद्य सेवा नित्य हि जन्तोर न हि त्र चोदना ([[Vanisource:SB 11.5.11|श्रीमद भागवतम ११.५.११]) । व्यवाय - यौन जीवन, और मांसाहार, अामिष । अामिष का मतलब है मांस खाना, मछली, अंडे । तो, व्यवाय का मतलब है यौन जीवन । यौन जीवन और मांसाहार, मांसाहारी भोजन । अामिष... मद-सेवा, नशा । नित्यासु जन्तु: | हर बद्ध आत्मा का प्राकृतिक झुकाव होता है । प्रवृत्ति | लेकिन हमें नियंत्रित करना है । यही मानव जीवन है । अगर तुम प्राकृतिक झुकाव की लहरों में अपने अाप को डालते हो, यह मानव जीवन नहीं है । तुम्हे सीमित करना होगा । पूरा मानव जीवन प्रतिबंध सीखने के लिए है । यही मानव जीवन है । यह एकदम सही है । वैदिक सभ्यता ।

तपो दिव्यम येन शूद्धयेत सत्तवम (श्रीमद भागवतम ५.५.१) | हमें अपने अस्तित्व को शुद्ध करना होगा । वह अस्तित्व क्या है? मैं आत्मा हूँ, शाश्वत, अनन्त हूँ। अभी मैं पदार्थों से दूषित हूँ, इसलिए मैं भुगत रहा हूँ । इसलिए मुझे शुद्ध करना है अपने अाप को । जैसे तुम रोगग्रस्त हालत से मुक्त हो गए हो । जब तुम्हे बुखार होता है तो तुम उपचार करते हो । अप्रतिबंधित भोग नहीं । डॉक्टर कहता है, "ऐसा मत करो, यह मत करो, यह मत करो ।"

इसी तरह यह मानव जीवन की इस रोगी हालत, भौतिक शरीर, से बाहर निकलना है । इसलिए अगर हम प्रतिबंधित नहीं करते हैं, तो इलाज कहॉ हो रहा है? इलाज कहां है ? पूरा कार्यक्रम प्रतिबंध है । तपो दिव्यम (श्रीमद भागवतम ५.५.१) | व्यक्ति के कार्यो को केवल तपस्या में, अात्म साक्षात्कार के लिए केंद्रित करना । यही मानव जीवन  है । लेकिन समाज के विभिन्न भाग हैं: ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यास । पूरी प्रक्रिया प्रतिबंधित करने के लिए है । लेकिन गृहस्थ का मतलब है थोडा सा लाइसेंस मिलना उनको जो पूरी तरह से यौन जीवन को सीमित नहीं कर पाते हैं । बस । 

गृहस्थ जीवन का मतलब अप्रतिबंधित यौन जीवन नहीं है । अगर तुमने इस तरह से विवाहित जीवन को समझा है, तो यह एक गलत धारणा है । तुम्हे नियंत्रित करना होगा अगर तुम बिमारी के इस जीवन से बाहर निकलना चाहते हो । तुम रोग से बाहर नहीं निकल सकते हो जब तुम बिना अंकुश अपने इन्द्रियों का आनंद लेते हो । नहीं, यह संभव नहीं है । यद इन्द्रिय प्रीतय आपृणोति न साधु मन्ये यत अात्मनो अयम असन्न अपि क्रलेशद अास देह: (श्रीमद भागवतम ५.५.४) | जो अप्रतिबंधित इन्द्रिय भोग सभ्यता में लिप्त हैं... यह अच्छा नहीं है । क्योंकि ये उसे अगले भौतिक शरीर को स्वीकार करने तक ले जाएगा |

शायद मानव शरीर, या पशु के शरीर, या कोई अौर शरीर । लेकिन उसे इस शरीर को स्वीकार करना पड़ता है । और जैसे ही तुम इस शरीर को स्वीकारते हो, फिर तुम्हे शरीर के तिगुने दुख से गुजरना पड़ेगा । जन्म, मृत्यु, बुढ़ापा, रोग । ये तिगुना दुख के लक्षण हैं । तो लोग... एक वैज्ञानिक तरीके से इन बातों को समझना होगा, लेकिन वे उपेक्षा कर रहे हैं । तो इसलिए वे हमेशा दुखी है । उन्हें पीड़ा की भी परवाह नहीं है। केवल जानवरों की तरह, वे पीड़ित हैं, लेकिन वे इसके लिए परवाह नहीं करते है । वे भूल जाते हैं । इसलिए व्यावहारिक रूप से यह इन्द्रिय संतुष्टि की सभ्यता का मतलब है पशु सभ्यता । थोडा सा चमकाया हुअा, बस ।