HI/Prabhupada 0802 - यह कृष्ण भावनामृत आंदोलन इतना अच्छा है कि अधीर धीर हो सकता है



Lecture on SB 1.7.18 -- Vrndavana, September 15, 1976

तो हमें धीर बनना है । फिर हम मौत से नहीं डरेंगे । जब तक हम धीर नहीं हैं... पुरुष के दो वर्ग होते हैं - धीर और अधीर । धीर का मतलब है जो व्यक्ति व्याकुलता का कारण होते हुए भी व्याकुल नहीं होता । जो व्याकुल नहीं होता है जब कारण हो भी व्याकुलता का । जैसे हम नहीं होते हैं, अभी, वर्तमान समय में, हम मौत से डरते नहीं हैं । लेकिन जैसे ही भूकंप अाता है, और हम डरते हैं की यह इमारत नीचे न गिरे, व्याकुलता का कारण, तो हम बहुत ज्यादा परेशान हो जाते हैं - कभी कभी चिल्लाते हैं । तो जो व्याकुल नहीं है, जब व्याकुलता की बात भी हो, वह धीर कहा जाता है । धीरस तत्र न मुह्यति (भ.गी. २.१३) । यह भगवद-गीता का बयान है ।

हमें अधीर से धीर बनना है । लेकिन यह कृष्ण भावनामृत आंदोलन इतना अच्छा है, कि अधीर धीर हो सकता है । यह इस आंदोलन का लाभ है । कृष्णोकीर्तन गान नर्तन परौ प्रेमामृताम्भो निधी धीराधीर | कृष्णोकीर्तन गान नर्तन परौ प्रमामृताम्भो निधी धीराधीर जन प्रियौ | यह कृष्ण भावनामृत आंदोलन, पुरुषों के दोनों वर्गों को भाता है, अर्थात धीर और अधीर । यह इतना अच्छा है । धीराधीर जन प्रियौ प्रिय करौ निर्मत्सरौ पूजितौ | यह चैतन्य महाप्रभु द्वारा शुरू किया गया है और छह गोस्वामियों द्वारा अनुसरण किया गया । वंदे रूप सनातनौ रघु युगौ श्री-जीव-गोपालकौ | तो यह आंदोलन है एक अधीर को धीर कैसे बनाना ।

हर कोई अधीर है । कौन नहीं है... मौत से कौन डरता नहीं ? कौन डरता नहीं है...? बेशक, वे बहुत ज्यादा नास्तिक हैं, वे भूल जाते हैं । लेकिन पीड़ा तो है । हम देख सकते हैं कैसे मृत्यु के समय पीड़ा होती है । कुछ लोग मर रहे हैं... आजकल यह एक बहुत ही आम हो गया है... कोमा । कोई कई हफ्तों के लिए बिस्तर पर पड़ा है, दो हफ्ते, रोते हुए । प्राण नहीं जाते, जो बहुत, बहुत पापी होते हैं । तो मृत्यु के समय बहुत दर्द होता है । जन्म के समय में बहुत दर्द होता है, और जब तुम रोगग्रस्त होते हो तब दर्द होता है, और बूढ़ापे में इतने सारे दर्द हैं । शरीर मजबूत नहीं है ।

हम कई तरीके से पीड़ित हैं, विशेष रूप से गठिया और अपच से । फिर रक्तचाप, सिरदर्द, तो कई बातें । इसलिए हमें धीर बनने के लिए प्रशिक्षित किया जाना चाहिए । ये बातें, व्याकुलता, हमें अधीर बनाती है, और हमें धीर बनने के लिए प्रशिक्षित किया जाना चाहिए । यही आध्यात्मिक शिक्षा है । यह पता होना चाहिए, मात्रा स्पर्शास तु कौन्तेय शीतोष्ण सुख दुःख दा: (भ.गी. २.१४) | ये कष्ट, मात्रा स्पर्शा:, तन-मात्र । इंद्रियों के कारण, इन्द्रिय धारणा, हम पीड़ित हैं । और इन्द्रिया भौतिक प्रकृति की बनी होती हैं । तो हमें भौतिक प्रकृति से ऊपर उठना होगा, धीर बनने के लिए । वरना, अधीर बना रहना पडेगा । धीराधीर जन प्रियौ प्रिय करौ ।